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Wednesday, July 29, 2009

जमाना जड़ रहे-हिंदी व्यंग्य कविता (hindi hasya kavita)

वह लोग आसमान से नहीं उतरे
जो जमाने में बदलाव लायेंगे।
किताबों ने बना दिया है
उनकी अक्ल को जड़
इतिहास के इंसानों को
वह आसमान से उतरा बतायेंगे।
जमीन पर पैदा आदमी
जड़ की तरह जमा रहे
भीड़ में भेड़ की तरह सजता रहे
इसलिये झूठे किस्से बाजार में सजायेंगे।
ओ। भीड़ में सजे भेड़ की तरह सजे इंसानों
जिनके इशारों पर चलते हुए
अपनी जिंदगी और जमाने में
बदलाव की उम्मीद लगाये बैठे हो
अपनी कामयाबी की जड़ों को
तुम्हारी लिये वह मिट्टी में नहीं मिलायेंगेे।
गुलाम बनकर अपने पैरों पर
मारोगे तुम कुल्हारी
वह उनके दर्द से अपना कक्ष सजायेंगे।
.................................
जड़ बनकर लोग खड़े रहें
उन पर खड़ा करें अपनी कामयाबी महल।
बदलाव की वह कभी नहीं करेंगेपहल।
............................
नारा लगाते हैं वह
जमाने को बदल देंगे।
पर उनके काबू में रहे आम इंसान
इसलिये सभी जगह वह दखल देंगे।
....................................
जमाना जड़ रहे
उसी पर उनकी पीढ़ियों का भविष्य टिका है।
इसलिये कहते हैं वह सबसे यही
‘होगा वही सब कुछ
जो सर्वशक्तिमान ने लिखा है’।

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Sunday, July 26, 2009

पहरेदार-हिंदी लघुकथा (paharedar-hindi laghu katha)

एक बेकार आदमी साक्षात्कार देने के लिये जा रहा था। रास्ते में उसका एक बेकार घूम रहा मित्र मिल गया। उसने उससे पूछा-‘कहां जा रहा है?
उसने जवाब दिया कि -‘साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। इतने सारे आवेदन भेजता हूं मुश्किल से ही बुलावा आया है।’
मित्र ने कहा-‘अरे, तू मेरी बात सुन!’
उसने जवाब दिया-‘यार, तुम फिर कभी बात करना। अभी मैं जल्दी में हूं!’
मित्र ने कहा-‘पर यह तो बता! किस पद के लिये साक्षात्कार देने जा रहा है।’
उसने कहा-‘‘पहरेदार की नौकरी है। कोई एक सेठ है जो पहरेदारों को नौकरी पर लगाता है।’
उसकी बात सुनकर मित्र ठठाकर हंस पड़ा। उसे अपने मित्र पर गुस्सा आया और पूछा-‘क्या बात है। हंस तो ऐसे रहे हो जैसे कि तुम कहीं के सेठ हो। अरे, तुम भी तो बेकार घूम रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘मैं इस बात पर दिखाने के लिये नहीं हंस रहा कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और मुझे नहीं! बल्कि तुम्हारी हालत पर हंसी आ रही है। अच्छा एक बात बताओ? क्या तम्हें कोई लूट करने का अभ्यास है?’
उसने कहा-‘नहीं!’
मित्र ने पूछा-‘कहीं लूट करवाने का अनुभव है?’
उसने कहा-‘नहीं!
मित्र ने कहा-‘इसलिये ही हंस रहा हूं। आजकल पहरेदार में यह गुण होना जरूरी है कि वह खुद लूटने का अपराध न कर अपने मालिक को लुटवा दे। लुटेरों के साथ अपनी सैटिंग इस तरह रखे कि किसी को आभास भी नहीं हो कि वह उनके साथ शामिल है।’
उसने कहा-‘अगर वह ऐसा न करे तो?’
मित्र ने कहा-‘तो शहीद हो जायेगा पर उसके परिवार के हाथ कुछ नहीं आयेगा। अलबत्ता मालिक उसे उसके मरने पर एक दिन के लिये याद कर लेगा!’
उसने कहा-‘यह क्या बकवास है?’
मित्र ने कहा’-‘शहीद हो जाओगे तब पता लगेगा। अरे, आजकल लूटने वाले गिरोह बहुत हैं। सबसे पहले पहरेदार के साथ सैटिंग करते हैं और वह न माने तो सबसे पहले उसे ही उड़ाते हैं। इसलिये ही कह रहा हूं कि जहां तुम्हारी पहरेदार की नौकरी लगेगी वहां ऐसा खतरा होगा। तुम जाओ! मुझे क्या परवाह? हां, जब शहीद हो जाओगे तब तुम्हारे नाम को मैं भी याद कर दो शब्द बोल दिया करूंगा।’
मित्र चला गया और वह भी अपने घर वापस लौट पड़ा।
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Thursday, July 23, 2009

जवानी दीवानी और बुढ़ापा-हास्य व्यंग्य कविता (javani divani aur budhapa-hindi hasya kavita)

जब वह जवान थे
तब तक लिये खूब लिये उन्होंने मजे
अब बुढ़ापे में नैतिक चक्षु जगे।
किताबों में छिपाकर खूब पढ़ा यौन साहित्य
जब मन में आया
वयस्कों के लिये लगी फिल्म देखने
स्कूल छोड़कर भगे।
अब बुढ़ापे में आया है
समाज का ख्याल
उठा रहे अश्लीलता का सवाल
मचा रहे धमाल
युवाओं को संयम का उपदेश देने लगे।
.............................
फिल्म और किताब पर
उनको समाज हिलता नजर आता है।
भले अपनी जवानी में
नैतिकता का मतलब न समझा हो
बुढ़ापे में जवानों को समझाने में
कुछ अलग ही मजा आता है।

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Sunday, July 19, 2009

संगीत बन गया है सोच का अपहरण करने वाला अस्त्र-आलेख(music in hindi film and tv)

किसी समय फिल्मों में पाश्र्व संगीत की सहायता से दृश्यों को भावपूर्ण बनाया जाता था। सामान्य स्थिति में दो व्यक्तियों के मध्य केवल संवाद होने पर तीसरा व्यक्ति उन पर सहजता से ध्यान देता है। अगर उनके वार्तालाप में कुछ बात अपने समझने लायक हो तो उस पर अपनी राय भी देता है। अगर वार्तालाप का विषय उसे प्रिय न हो तो वह अनसुना भी कर सकता है। चूंकि फिल्मों में दर्शक को बांधे रखना जरूरी है इसलिये उसमें संगीत इस तरह डाला जाता है कि बेकार का संवाद भी प्रभावपूर्ण हो जाता है क्योंकि जो भाव अभिनेत्री अभिनेत्री के शब्द और सुर नहीं उभार सकते वह काम संगीत कर देता है। निर्देशक इस संगीत को मसाले की तरह सजाता है ताकि दर्शक एक मिनट भी अपने दिमाग में जाकर विचार न करे।
अगर किसी संवाद में विरह रस इंगित करना है तो उसी तरह का संगीत जोड़ दिया जाता है जिससे दर्शक या श्रोता उसमें बह जाये। अगर कहीं वीभत्स रस भरना है तो उसी तरह का भयानक शोर वाला संगीत प्रस्तुत किया जाता है। कहीं करुणा का भाव है तो संगीत को इस तरह जोड़ा जाता है कि संवाद और पात्र के सुर प्रभावी न हों तो भी आदमी अपनी जज्बातों की धारा में बह जाये। जैसे जैसे मनोरंजन के साधनों का विस्तार हुआ तो रेडियो और टीवी चैनलों में भी इसका प्रयोग होने लगा है। एक तरह से पाश्र्व संगीत आम आदमी के निजी भावों का अपहरण करने वाला साधन बन गया है।
टीवी चैनलों में सामाजिक धारावाहिकों में वीभत्स सुर का खूब प्रयोग हो रहा है। कहीं सास, कहीं बहु तो कहीं ननद जब अपने मन में किसी षड्यंत्र का विचार करती दिखाई देती है तो उसके पाश्र्व में दनादन संगीत का शोर मचा रहता है जिसमें संवाद न भी सुनाई दे तो इतना तो लग जाता है कि वह कोई भला काम नहीं करने जा रही। करोड़पति बनाने वाला कार्यक्रम सभी को याद होगा। अगर उसमें संगीत के उतार चढ़ाव नहीं होता तो शायद इतने दर्शक उससे प्रभावित नहीं होते।
यह केवल टीवी चैनल ही उपयोग नहीं कर रहे बल्कि अनेक संत अपने प्रवचनों में भी अपनी बात के लिये इसका उपयोग कर रहे हैं। उस दिन एक संत देशभक्ति की बात करते हुए भावुक हो रहे थे। वह शहीदों की कुर्बानी को याद करते हुए आंखों में आंसु बहाते नजर आये। उस समय पाश्र्व में करुण रस से सराबोर संगीत बज रहा था। स्पष्टतः यह व्यवसायिकता का ही परिणाम था।
सच कहें तो यह पाश्र्व संगीत एक तरह से पैबंद की तरह हो गया है। धारावाहिकों और फिल्मों में अभिनेता अभिनेत्रियों के अभिनय से अधिक उनकी उससे अलग गतिविधियों की चर्चा अधिक होती है। हमारे अभिनेता और अभिनेत्रियां खूब कमा रहे हैं पर फिर भी उनको विदेशी कलाकारों से कमतर माना जाता है। सिफारिश के आधार पर ही लोग फिल्मों और धारावाहिकों में पहुंच रहे हैं। कहने को कलाकार हैं पर कला से उनका कम वास्ता कमाने से अधिक है। कुछेक को छोड़ दें तो अनेक हिंदी में काम करने वाले कलाकारों को तो हिंदी भी नहीं आती। अक्सर लोग यह सोचते हैं कि यह कलाकार अंग्रेजी में बोलकर हिंदी का अपमान करते हैं पर यह एक भ्रम लगता है क्योंकि उनकी पारिवारिक और शैक्षिक प्रष्ठभूमि इस बात को दर्शाती है कि उनको हिंदी का ज्ञान नहीं है। इतना ही नहीं अनेक गायक और गायिकायें ऐसे भी हैं जो केवल इसी पाश्र्व संगीत के कारण चमक जाते हैं।
देश में अनेक विवादास्पद धारावाहिकों को लेकर चर्चा होती है अगर आप गौर करें तो पायेंगे कि वह पाश्र्व संगीत के सहारे ही लोगों के जज्बातों को उभारते हैं। अगर उनमें संगीत न हो तो शायद आदमी इतना प्रभावित भी न हो और उनकी चर्चा भी न करे। यह तो गनीमत है कि समाचारों के साथ ऐसे ही किसी पाश्र्व संगीत की कोई प्रथा विदेश में नहीं है वरना हमारे समाचार चैनल उसका अनुकरण जरूर करते। अलबत्ता वह सनसनी खेज रिपोर्टों में वह इसका उपयोग खूब करते हैं तभी थोड़ी सनसनी फैलती नजर आती है। इसके अलावा वह ऐसे ही संगीतमय धारावाहिकों का प्रचार अपने कार्यक्रमों में कर संगीत की कमी को पूरा कर लेते हैं। सच कहा जाये तो पाशर्व संगीत आदमी की सोच को अपहरण करने वाला अस्त्र बन गया है।
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Monday, July 13, 2009

सच से परे होकर-हिंदी शायरी (sach se pare hokar-hindi shayri)

खड़े हो जिस ख्याली शिखर पर
वह अब बिफर रहा है।
तुम चले जा रहे जिस मंजिल की तरफ
उसका ढांचा अब बिखर रहा है।
दुनियां में हर जंग से लड़कर
उसे जीतना आसान तो तब होगा
जब अपने दुश्मन को पहले समझ पाओ
अपनी उल्झनों में पड़कर
तुम्हारा दिल दिमाग सिहर रहा है
सच से परे होकर
अंदाज से दुनियां की शयों से
मोहब्बत करने वाले
तेरे ही उल्टे दावों से तेरा खेल बिगड़ रहा है।

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Friday, July 10, 2009

आखिरी सच-व्यंग्य कविता (akhri sach-hindi vyangya kavita)

डरपोक लोगों के समाज में
बहादुर बाहर से किराये पर लाये जाते हैं.
किसी गरीब को न देना पड़े मुआवजा
इसलिए किसी की कुर्बानी
कहाँ दी गयी
इससे न होता उनका वास्ता
उधार के शहीदों के गीत
चौराहे पर गाये जाते हैं.

कमअक्लों की महफ़िल में
बाहरी अक्लमंदों के
चर्चे सुनाये जाते हैं
किसी कमजोर की पीठ थपथपाने से
अपनी इज्जत छोटी न हो जाए
इसलिए उनको दिए इसके दाम
सभी के सामने सुनाये जाते हैं.
घर का ब्राह्मण बैल बराबर
ओन गाँव का सिद्ध
यूंही नहीं कहा जाता
दौलतमंदों और जागीरदारों की चौखट पर
हमेशा नाक रगड़ने वाले समाज की
आज़ादी एक धोखा लगती है
फिर भी उसके गीत गाये जाते हैं.
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उसने कहा ''मैं आजाद हूँ
खुद सोचता और बोलता हूँ.''
उसके पास पडा था किताबों का झुंड
हर सवाल पर
वह ढूंढता था उसमें ज़वाब
फिर सुनाते हुए यही कहता कि
'वही आखिर सच है जो मैं कहता हूँ

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Monday, July 6, 2009

नही भज सकते अब साली और भाभी-व्यंग्य कविता (hasya vyangya kavita)

दनदनाता हुआ आया फंदेबाज और बोला
‘दीपक बापू, तुम्हारे हिट होने के मिली गयी चाभी
तुम भी बना लो कोई व्यंग्य पात्र
जिसके नाम के साथ जोड़ दो भाभी।
गारंटी है हमारी, तुम्हारे फ्लाप होने का
सिलसिला भी टूट जायेगा
हर विरोधी सामने से फूट जायेगा
देखो प्रतिबंधित हो गयी एक वेबसाईट
जिसकी नायिका थी कोई कल्पित भाभी
लोग उसे अब अधिक ढूंढ रहे हैं
नाम लेकर लिख लिखकर कंप्यूटर पर कूद रहे हैं
तुम अपना ब्लाग भी पहुंचा दो
हिट का ताला खोलने वाली यही है एक चाभी।

सुनकर पहले चौंके
फिर अपना पसीना पौंछते कहें बोले दीपक बापू
‘कमबख्त इंटरेनेट पर कोई नाम हिट नहीं होता
बूढ़े हों या जवान ‘सेक्स’ शब्द डालकर
लगाते हैं यौन साहित्य के अथाह समुद्र में गोता।
अपनी आंखें फोड़ते रहेंगे
अपने ही शरीर का रस जलाकर
किससे शिकायत करेंगे
नाम कोई भी हो
घरवाली शब्द हिट नहीं दिला सकता
साली लिखो तभी कोई जाल में फंसता
जेठ को हिट नहीं बना सकती भाभी
देवर ही उसके यौन साहित्य की है एक चाभी।
तुमने आने में कर दी है देरी
हम लगा चुके भाभी साहित्य घर की फेरी।
मिल भी गये हिट वहां तो
हमारे किस काम आयेगा
हम ठहरे फोकटिया, धेला भी हाथ नहीं आयेगा।
फिर सोचो
आदमी कब तक उस श्रृंगार रस से चिपका रहेगा
कभी तो अति होने की बात कहेगा
फिर हास्य रस की तरफ आयेगा
फंदेबाज, सच कहें तो
तुमने इतने हिट दिला दिये हैं
उन पर ही हमें नाज है
तुम्हारे सामने पहली बार खोला यह राज है
इससे अधिक क्या कहें
नहीं भज सकते अब साली और भाभी।

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Thursday, July 2, 2009

हिंदी भाषा के वीभत्स शब्दों पर भरोसा-व्यंग्य आलेख (hasya vyangya in hindi)

समलैंगिकों को कानूनी अधिकार क्या मिला इस देश में एक ऐसी बहस चली पड़ी है जिसका आदि या अंत फिलहाल नजर नहीं आता। यहां हम समलैंगिकों के अधिकारों या उनकी मनस्थिति पर विचार न कर यही देखें कि इस पर तर्क क्या दिया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आज थोड़ा हिंदी के उस वीभत्स रूप पर जरा गौर करें जो समलैंगिकों को डरा सकता है। यह डर है गालियों का। अधिकतर शिक्षित लोग गालियां न देते हैं न सुनने का उनमें सामथ्र्य होता है। कुछ लोग देते हैं पर सुनने की हिम्मत नहीं करते।
समलैंगिक एक आकर्षक शब्द लगता है पर यह केवल बड़े शहरों में रहने वाले मनोविकारी लोगों को ही सुहा सकता है। छोटे शहरों और गांवों में अगर समलैंगिक अगर पहुंच जाये तो उसे जो शब्द अपने लिये सुनने को मिलेगा उसे वह समझेगा नहीं और सच बात तो यह है कि उस शब्द का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि आशय ही समलैंगिकता के अधिक निकट है। समलैंगिक संबंध वही बनायेगा जिसने उस शब्द को कभी सुना नहीं होगा।
जब हिंदी के वीभत्य रूप का विचार आया तो यह प्रश्न भी उठा कि क्या जितने भयानक शब्द हिंदी-जिसे विश्व की सर्वाधिक मधुर और वैज्ञानिक भाषा भी अब माना जाने लगा है-में होते हैं उतने किसी अन्य भाषा में भी शायद ही होते होंगे। कम से कम अंग्रेजी में तो नहीं होते होंगे क्योंकि अपने यहां अंग्रेजी में बोलने वाले हेकड़ हमेशा ही गालियों के लिये हिंदी का जिस सहारा लेते हैं उससे तो यही लगता है।
बात से बात यूं निकली कि एक विद्वान ने कहा कि समलैंगिक संबंध बीमारी नहीं है-यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है। अगर यह सच है तो पश्चिम और पूर्व की संस्कृति में जमीन आसमान का अंतर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उससे अधिक तो अंतर तो मानवीय सोच में है। अगर इस तरह की सोच ही सभ्यता का प्रतीक है तो हम भारतीय असभ्य भले मगर विश्व के अध्यात्मिक गुरु कहे जाने वाले अपने भारत देश में विश्व संगठन की यह राय कतई स्वीकारी नहीं जा सकती।
अगर हमारे देश के विद्वानों का यह मानना है कि जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन बीमारी नहीं मानता तो उसे हम भी नहीं मानेंगे तो कुछ कहना व्यर्थ है। इस देश के विद्वानों और प्रचार माध्यमों का कहना ही क्या? स्वाईन फ्लू के देश में कुल सौ मरीज भी नहीं है पर आप उसके बारे में पढ़ेंगे और सुनेंगे तो लगेगा कि जैसे पूरा देश ही स्वाईन फ्लू की चपेट में हैं जबकि उससे हजार गुना लोग तो टीवी, पीलिया आंत्रशोध और मलेरिया से पीड़ित हैं उससे बचाव के तरीकों का प्रचार अधिक नहीं होता क्योंकि उसकी दवायें तो ऐसे ही बिक जाती हैं पर स्वाइन फ्लू को एक विज्ञापन की जरूरत है जो जागरुकता पैदा करने के नाम पर ही चलता है। हम तो आज तक यही नहीं समझ पाये कि हेपेटाइटिस और पीलिया में अंतर क्या है? आखिर हैपेटाइटिस के टीके लगते हैं पर वह पीलिया से किस तरह अलग हमें पता नहीं।
बात हम करें समलैंगिक संबंधों की तो उसके लिये जो हिंदी में शब्द है वह इतना वीभत्स है कि हमारा बूता तो यहां लिखने का नहीं हैं। अक्सर एक पुरुष जब दूसरे से नाराज होता है तो वही शब्द कहता है और फिर झगड़ा अधिक बढ़ जाता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन को उस गाली के बारे में नहीं मालुम होगा! अंग्रेजी में गिटिर पिटिर करने वालों को नहीं पता कि मंकी (बंदर) शब्द उनके लिये जिस तरह नस्लवाद का प्रतीक है वैसे ही पुरुष समलैंगिक संबंधों के लिये ऐसा शब्द हिंदी में है जिस पर कोई भला लेखक तो लिख ही नहीं सकता।
अंतर्जाल पर एक लेखक ने उस भयानक लगने वाले शब्द को अपने ब्लाग पर लिखा था। हिंदी के ब्लाग एक जगह दिखाये जाने वाले फोरम पर जब हमने उसे पढ़ा तो पूरा दिन उस फोरम का रुख नहीं किया। इतना ही नहीं उस फोरम ने बाद में उस लेखक का ब्लाग का लिंक ही अपने यहां से हटा लिया। उससे मन इतना खराब हुआ कि दो आलेख और तीन व्यंग्य कवितायें जब तक नहीं लिख डाली तब चैन नहीं आया। नहीं लिखा तो वह शब्द।
हिंदी वार्तालाप करने वाले सामान्य लोगों में बहुत से लोग गालियों का उपयोग करते हैं। हां, अब शिक्षित होते जाने के साथ ही गालियों का आद्यक्षर कर लिया है जैसे कि अंग्रेजी का संक्षिप्त नाम लिखते हैं। सभ्य लोग इन्ही आद्यक्षरों के सहारे काम चलाकर अपने गुस्से का इजहार कर लेते हैं। इसकी एक दिलचस्प घटना याद आ रही है। आस्ट्रेलिया के साथ एक मैच में एक भारतीय खिलाड़ी ने आस्ट्रेलियो के खिलाड़ी को मंकी (बंदर) कह डाला। इस पर भारी हायतौबा मची। भारतीय खिलाड़ी पर प्रतिबंध भी लगा। आरोप लगाया कि यह तो सरासर नस्लवाद है। भारत में इस पर जमकर विरोध हुआ। कहा गया कि ‘भारतीय कभी नस्लवादी नहीं होते।’

सच कहा होगा। आप तो जानते हैं कि चाय के ठेलों, विद्वानों की बैठकों और बाजारों में ऐसे घटनाओं पर खूब चर्चा होती है। एक सज्जन ने कहा-‘हम भारतीय बहुत सज्जन हैं। विदेश में जाकर ऐसी हरकतें करें यह संभव नहीं है। फिर गुस्से में बंदर कहें यह तो संभव ही नहीं है। बंदर तो यहां प्यार से कहा जाता है। हां, यह संभव है कि भारतीय सभ्य खिलाड़ी ने क्रोध में आकर उस गाली का आद्यक्षर प्रयोग किया हो जिसका स्वर मंकी (बंदर) के रूप में सुनाई दिया हो।’
पता नहीं उस आदमी का यह कहना सही था या गलत पर जो लोग उसे सुन रहे थे उनका मानना था कि ऐसा भी हो सकता है।
जब हमने एक विद्वान सज्जन द्वारा समलैंगिकता को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उसे बीमारी न मानने की बात सुनी तब लगा कि अब हमारे देश के लोग उस हर चीज और विचार पर फिर से दृष्टिपात करें जो उन्होंने अपनाया है। एक भयानक मनोविकार अगर बीमारी नहीं है तो फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन किस आधार पर यह कहता है कि ‘इस दुनियां में चालीस फीसदी से अधिक लोग मनोविकारों का शिकार है पर उनको पता नहीं है।’
अगर वह इसे मानसिक रोग नहीं मानता तो उसे जाकर बतायें कि हिंदी में इसके लिये विकट शब्द है जो बहुत भड़काने वाला है। यह शब्द उस मंकी शब्द से अधिक विस्फोटक है जिसे वह लोग नस्लवाद का प्रतीक मानते हैं।
वैसे जब चालीस फीसदी मनोरोगियों के होने की बात विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कही थी तब हमने सोचा कि वह संख्या कम ही बता रहा है क्योंकि इंसान जिस तरह की हरकतें कर रहे हैं उससे तो यह संख्या पचास से अधिक ही लगती है और यह वह लोग हैं जिनके पास धन, प्रतिष्ठा और पद की ताकत है, वह मदांध हो रहा है। किसी को कुचलकर वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है। बाकी पचास फीसदी तो गरीब हैं जिनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो ऐसे मनोविकार पाल सकें।
अगर हमारी बात पर यकीन न हो तो इस विषय पर टीवी पर चर्चायें सुन लो। अखबार पढ़ लेना। कुछ लोग समलैंगिक अधिकार मिलने पर नाच रहे हैं तो कुछ विरोध में धर्म और संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं। जो नाच रहे हैं उनके मनोरोगी होने पर हम क्या कहें? मगर जो विरोध कर रहे हैं वह मनोरोगी हैं या भावनाओं के व्यापारी यह भी देखने वाली बात है।
कह रहे हैं कि
1.इससे समाज भ्रष्ट हो जायेगा।
2.क्या इस देश में माता पिता चाहेंगे कि उनके बच्चे समलैंगिक बन जायें।
3.यह तो पूरी प्रकृति के लिये खतरा है
उनके सारे तर्क हास्यास्पद हैं। हमें तो अपनी मातृभाषा के हिंदी शब्द कोष में अदृश्य रूप से मौजूद वीभत्स शब्दों के साथ ही अपने देश के युवकों और युवतियों में अध्यात्मिकता की तरफ बढ़ते रुझान पर पूरा भरोसा है। बड़े शहरों का पता नहीं छोटे शहरों तथा गांवों में रहने वाले युवक भी उन शब्दों का उपयोग करते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि समलैंगिक शब्द के लिये कौनसा शब्द है? वैसे भी हमारे महापुरुष कहते हैं कि असली भारती गांवों में बसता है। समलैंगिकता भी वैसा ही रोग है जैसा स्वाईन फ्लू-दिखेगा कम पर प्रचार माध्यमों में चर्चित अधिक होगा। चंद समलैंगिक लोगों की वजह से देश की युवा पीढ़ी को अज्ञानी मान लेना हमें स्वीकार्य नहीं है। इस देश के युवक युवतियां पश्चिमी देशों से अधिक चेतनशील हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो वहां पहुंचकर अपनी योग्यता का लोहा नहीं मनवाते। यह योग्यता मनोविकारी नहीं अर्जित कर सकते।
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