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Saturday, August 30, 2008

अपनी बची बीमारी के साथ चल दिये-हास्य व्यंग्य

मेरे मित्र ने कहा-‘कल कोई एक निबंध लिख कर लाना। मेरे बेटी वाद विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाली है तो उसे याद कर बोलेगी।’
उसने विषय बता दिया। अगले दिन मैंने उसे एक कागज पकड़ाया तो उसने मुझसे कहा-‘ऐ भाई! मैंने तुम्हें निबंध लिखने के लिये कहा था। यह क्या छटांक भर लिख कर लाये हो। क्या ब्लाग पर छटांक भर लिखते हुए एक किलो का लिखना भूल गये।’

हमने कुछ सुना कुछ नहीं। बात उससे आगे बढ़ी ही नहीं। छटांक भर शब्द पर ही हम अटक गये। क्या जोरदार शब्द था ‘छटांक भर’। अब तो हमने तय किया कि जब भी लिखेंगे छटांक भर ही लिखेंगे। इस शब्द में इतना आकर्षण लगा कि जब भी कोई हमारे ब्लाग से अंतर्जाल पर टकरायेगा यह शब्द पढ़कर जरूर पढ़ने के लिये प्रेरित होगा।

बहरहाल मित्र को दोबारा लिखने का आश्वासन दिया। उसके बाद घर आकर एक पुराना लेख निकाला। वह उसी विषय संबंधित था और उसे सौंप दिया। उसने पूछा कि ‘इतनी जल्दी कैसे लिख लिया’।
‘छटांक भर का काम था, इसमें हमें देर क्या लगती है।’हमने कहा
वह बोला-‘अगर यह छटांक भर का काम है तो कल वाले की तौल क्या होगी? उसका तो बांट भी नहीं मिलेगा।’
मैंने कहा-‘मेरे लिये तो सब छंटाक भर है।’
बस तबसे हमारे दिमाग में छटांक भर शब्द को अपना हथियार बना लिया।
कल एक चाय की दुकान पर गये। वहां चाय वाले से कहा-‘देना भई, छटांक भर चाय पिला देना।’
चाय वाला हमें घूर कर देखने लगा और बोला-‘बाबूजी, यह छटांक भर चाय का क्या मतलब है?’
हमने कहा-‘तुम तो रोज पिलाते हो भूल गये क्या?’
वह बोला-‘बाबूजी, तो आप कट चाय बोलिये ना! छटांक भर से मैं कन्फ्यूज हो गया।’
वह चला गया तो हमने उसे यहां काम करने वाले आदमी से कहा-‘भाई, जरा छटांक भर पानी पिला देना।’
वह भी घूर घूर कर हमें देखने लगा। हमने कहा-‘सुना नहीं। छटांक भर पानी पिला देना।’
वह बोला-‘पर छटांक भर पानी तोल कर कैसे लाऊं। वह तो ग्लास मेंे ही आयेगा।’
हमने कहा-‘तुम्हारा ग्लास ही तो छटांक भर का है। ले आओ उसी में।’
उसी समय हमारा वह मित्र भी आ गया। उसने आते ही चाय वाले को दो कप चाय लाने का आदेश दिया और हमारे सामने बैठ गया।
चाय पीते हुए हमने उससे एक आदमी की चर्चा करते हुए कहा-‘उसका छटांक भर फोन नंबर तो देना।’
वह बोला-मेरे पास नहीं है।’
हमने कहा-‘छटांक भर पता ही दे दो।
वह बोला-‘यह छटांक भर का क्या मतलब। पूरा का पूरा ही ले लो एक किलो का। वैसे मैंने तो मजाक में ही कह दिया था छटांक भर तुम तो उसे पकड़ कर बैठ गये।’
मैंने कहा-‘मैंने तो तुमसे कुछ कहा ही नहीं। छटांक भर बहुत हिट शब्द लगा सो पकड़ लिया। अधिक परेशान न होना। अगर हमारे ब्लाग खोलोगे तो वहां अब यही शब्द नजर आयेंगे।’
मेरा मित्र बोला-‘अजीब आदमी हो। इस छटांक भर की बीमारी को वहां भी ले गये।’
हमने पूछा-‘अब यह बताओ कि यह छटांक भर बीमारी क्या होती है वैसे यह आयी तो वहीं से ही थी।’
वह बोला-‘इस बीमारी का नाम है छटांक भर, पर तुम्हारे लिये एक किलो साबित होने वाली हैं। वैसे सच बताना क्या यह मेरे कहने से यह छटांक भर की बीमारी वहां ले गये हो।’
हमने कहा-नहीं! बल्कि यह बीमारी तो आई वहीं से। तुमने तो केवल उसे बढ़ाने का काम किया है। वहां लोग बोलते हैं कि छटांक भर का पाठ लिखता है।’
चाय पीकर हम दोनो बाहर निकले। थोड़ी दूर चलकर हमने एक बाजार देखा और उससे कहा-‘धूप बहुत है। उस किताब की दुकान पर चलते है और वहां से दिमागी बीमारियों के घरेलू इलाज करने वाली किताब खरीदते है।’
वह बोला-‘हां! यह ठीक है। इससे तुम इस छटांक भर की बीमारी से मुक्ति पा लोगे।’
मैंने कहा-‘पगला गये हो। हम अपने इलाज के लिये ही थोड़े ही खरीद रहे हैं। वह तो हमें अपने ब्लाग पर लिखना है। लोग कह रहे हैं कि छटांक भर कविताओं और व्यंग्यों से क्या होता है। सोच रहे है कि वहां आधी रात के बैठकर एक धारावाहिक लिखेंगे‘डाक्टर कहते हैं’, हो सकता है इससे हिट हो जायें।’
वह बोला-‘तुम अपनी बीमारी का क्या करोगे?
हमने कहा-‘उसकी फिक्र तो तुम जैसे दोस्त करें जिनकी वजह से यह लगी है। बहुत किस्मत से बिना बुलाये बीमारी आयी है वरना लोग तो हमदर्दी पाने के लिये बीमारी का नाटक करते हैं। जहां चार लोग बैठते हैं तो मधुमेह,उच्चरक्तचाप,टीवी और तमाम बीमारियों अपने होने की सूचना देकर वहां एक दूसरे से हमदर्दी जुटाते हैं। कुछ होती है और कुछ बताते हुए अपने आप बढ़ जाती है। उस बीमारी से वह स्वयं ही परेशान होते हैं पर हमारी छटांक भर बीमारी तो दूसरों के लिये परेशानी का सबब बनेगी। हमें तो हिट मिलेंगे।’

मित्र ने कहा-‘तब तो अगर तुम्हें कोई इनाम वगैरह मिले तो मुझे उसका हिस्सा हमें देना। आखिर यह बीमारी हमने दी है।’
हमने कहा-‘यह तुम्हारा भ्रम हैं। जिस तरह बीमारियों की चर्चा से बढ़ती हैं उसी तरह यह भी तुम्हारी चर्चा से बढ़ी है।
उसने पूछा-‘तो किसी ने ब्लाग वाले ने लिखकर यह बीमारी तुम पर लादी है। उसका नाम मुझे बता दो तो उसको धन्यवाद दूंगा। अरे, उसे हमारे दोस्त को हिट होने का मार्ग बता दिया।’

हमने कहा-‘हम तो उसका नाम भूल ही गये। यह छटांक भर शब्द आकर ही ऐसा चिपका कि सब भूल गये। हम बस खुश हैं। आह...आह......वाह क्या आईडिया मिला। अब तो समझो कोई पुरस्कार मिलकर ही रहेगा।’
मित्र ने कहा-‘साफ कहो संभावित पुरस्कार की सारी राशि हड़पने का मन है। इस शब्द का अविष्कारकर्ता मुझे मानते नहीं और जिसने किया है उसका बताते नहीं। यह भारी चाालकी दोस्तों के साथ नहीं चल सकती।’
हमने कहा-‘भारी भरकम कहां यार! अब तो बस छटांक भर कहो। तुम क्या नहीं चाहते हम ब्लाग पर हिट पायें।’
मित्र ने कहा-‘महाराज, मगर कोई पुरस्कार आ जाये तो छटांक भर हमारे साथ भी बांट लेना। अरे और कुछ नहीं तो छटांक भर मिठाई ही खिला देना।’
हमने कहा-‘हां, अगर कोई पुरस्कार आ गया तो शेयर कर दूंगा ‘छटांक भर’
हमारा मित्र बोला-‘यार, मुझे याद रखना चाहिए कि तुम अब ब्लागर हो। इसलिये ऐसे शब्द नहीं बोलूंगा जिसे चुराकर तुम हिट लो। ऐसे शब्द तुमसे बोलने से क्या फायदा जो छटांक भर भी फायदा न हो।’
हमने कहा‘क्या बात करते हो यार, छटांक भर फायदा तो होगा ही छटांक भर मिठाई खाकर।’
उसने अपना सिर हिलाते हुए कहा-‘नहीं! बिल्कुल नहीं। तुम्हारी जो हालत दिख रही है तुम भारी भरकम फायदा तो करा दोगे पर छटांक भर नहीं।’
अब हम उसकी तरफ देख रहे थे और लग रहा था कि हमारी बीमारी उसके पास जा रही है। पूरी तरह हमारी बीमारी चली नहीं जाये यह डर हमें लगने लगा। हम अपनी बची बीमारी के साथ वहां से चल दिये ।
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Friday, August 29, 2008

अपने मतलब होते गहरे-हिंदी शायरी

उनके हैं सुंदर चेहरे

पर दिल पर हैं काली नीयत के पहरे

मुस्कराती आंखों के पीछे हैं

कुटिल भाव ठहरे

तुम्हारी सुनते लगते हैं

पर कान हैं उनके बहरे

लच्छेदार बातों से मन बहलाते हैं

सपने दिखाते महलों में बसाने के

तरीके बताते हैं जिंदगी में

चालाकियों के दांव आजमाने के

संवारने का दावा करते हैं जिंदगी

आ जाते हैं बहुत करीब

जैसे पितृपुरुष हों

पर उनके अपने मतलब होते गहरे

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Thursday, August 28, 2008

सात समंदर पार-हिंदी शायरी

देह यहां है गांव में
आंखें देखना चाहती हैं सात समंदर पार
सोचता है मन
शायद वहां रौशनी अधिक होगी
वहां रोज रात को चांद की चमक होगी
मिलेगा यहां से ज्यादा सम्मान और प्यार

ख्यालों की नाव पर जब सवार
आदमी का मन हो जाता है
दोनों पांवों में अज्ञान का पहिया लग जाता है
उतर पड़ता है वह समंदर के अंधेरे में
कुछ पहुंचते हैं दूसरे किनारे तक
कुछ के नसीब में डूबना ही आता है
पहुंचते हैं जो उस पार
उनके मन को भी ऊबना आ जाता है
सोचते हैं
इंसान की बनाई कृत्रिम रौशनी तो
यहां बहुत है
जो ज्ञान चक्षुओं को कर देती है दृष्टिविहीन
पर सूरज और चांद की रौशनी
बराबर ही थी अपने यहां भी
जिसकी चाहत थी
वह न सम्मान मिला न प्यार
चैन और अमन भी कहां पाया
आकर सात समंदर पार
यादों में सताते अपने और यार

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Monday, August 25, 2008

छटांक भर की कविता से लोगों के दिल में छाये जाते-हास्य हिंदी शायरी

भरते हैं जेब अपनी माया से
फूल रहे हैं काया से
अपने जेब का बोझ नहीं उठा पाते
दूसरे की कविता को छ्रटांक भर का बताते

दोष उनका नहीं जमाने का है
जिन पर है माया का वरदहस्त
हो जाते हैं वह बोलने में मस्त
रचना किसे कहते हैं जानते नहीं
दूसरे के शब्दों को पढ़ते नहीं
कोई बताये तो अर्थ मानते नहीं
चंद किताबों से उठाये शब्द
यूं बाजार में ले जाते
साथ में पैसे भर घर ले आते
बड़े शहरों मे रहते
छोटे शहर के कवि को भी छोटा बताते ं
मगर सच भला किससे छिपता है
लिख लिख कर नाम और नामा कमाया
अपने ऊपर व्यवसायिक लेखक का तमगा लगाया
फिर भी नहीं बन पाये लोगों के नायक
पेशेवरों के ही रहे शब्द गायक
छटांक भर की कविता है तो क्या
लोगों के दिल में बैठ जाती है
देखने के छंटाक भर की लगे
भाव दिखाये गहरा
वही कविता कहलाती है
कहें महाकवि दीपक बापू
यूं तो तुम गाये जाओ
फब्तियां हम कसकर सभी से वाह वाह पाओ
हम छटांक भर की कविता से
लोगों के दिल में छाये जाते

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Sunday, August 24, 2008

समय से पहले चेत जाओ-हिंदी शायरी

शब्दों के शोर का आतंक मचाओ
दूसरे की गल्तियों को अपराध न बताओ
तुम्हारी आवाज को मिल गयी है
आजादी के साथ दौलत की ताकत
पर उस पर इतना न इतराओ

शिकायतों का पुलिंदा साथ लिये घूमते हो
पर अपनी गल्तियों को मजबूरी कहकर चूमते हो
नक्कारखाने से निकल आये हो
अपनी तूती में दूसरों के लिये
चुभने वाले तीर क्यों ढूंढते हो
अपनी कलम के तलवार हो जाने का जश्न न मनाओ

कब तब बहलाओगे
झूठ को सच बनाओगे
अपने दृष्टा होने के अहसास को
सृष्टा की तरह मत समझाओ
जमाने में कई लाचार है
जिनसे तुम्हारी तरह गल्तियां हो जाती हैं
पर छिपने के लिये वरदहस्त के अभाव में
सभी के सामने आ जाती हैं
उन पर तुम अपनी रोटी न पकाओ

जमाने में खून की होली खुले में खेलने वाले बहुत हैं
उनसे अपनी दृष्टि न छिपाओ
बढ़ सकते हैं उनके हाथ तुम्हारी तरफ भी
शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गरदन रेत में न छिपाओ
दूसरों की इज्जत से खेलने वाले खबरफरोशों
जब तक उसके पर्दे का सहारा है
लोग सह जाते हैं
अपना दर्द पी जाते हैं
तुम उन्हें मत डराओ
जमाना जब डरता है
तब ख्यालों से मरता है
कौम अगर शब्दों के शोर के आतंक तले
इस तरह मरती रही
तुम्हारी खबरें बेअसर हो जायेंगी
अनसुनी और अनदेखी कर दी जायेंगी
अपने आजादी के हथियार की धार को
बेजा इस्तेमाल कर उसे कुंद मत करो
नहीं तो फिर जुर्म पसंद दौलतमंदों के गुलाम हो जाओगे
समय से पहले चेत जाओ

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Friday, August 22, 2008

पालता है अन्न पत्थर नहीं-व्यंग्य क्षणिकायें

पद पुजता है आदमी नहीं
चमकती है प्रतिष्ठा देह नहीं
पालता है अन्न पत्थर नहीं
ओ! जमाने को उसूलों के बयां करने वालों
आकाश से कोई चीज जमीन पर
आकर टपकती नहीं
धरती पर उगती नहीं
उन चीजों की शौहरत को ही
असली सच बताकर
मत बहलाओ भोले लोगों को
जो बनती बिगड़ती हैं यहीं
...................................

दुनियां में जितने खिलौने हैं
जब तक खेलें उनके साथ ठीक
बिगड़्र जायें तो खुद को ही ढोने हैं
खुद से ही बहलायें दिल तो कितना अच्छा
काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल
ऐसे ही बीज हमको बोने हैं

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कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Thursday, August 21, 2008

रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरता-व्यंग्य कविता

पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
...........................
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

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Wednesday, August 20, 2008

चिंतन में अमरत्व की तलाश-हास्य कविता

चिंतन कुछ उन्होंने इस तरह किया
सारी चिंताओं ने उन्हें घेर लिया
उठाकर घूम रहे बोझा अपने सिर पर
न काम याद आता न घर
किया जब किसी ने उनसे सवाल तो बोले
‘बस, चिंतन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला
किसी तरह होना है मुझे अमर’
................................................

एक ने कहा
‘चलो चिंतन सम्मेलन में चलें
अपने विचार इस तरह रखें कि
लोग हमारी बौद्धिकता पर जलें
मुझे तो कुछ आता नहीं
तुम ही कुछ बोल देना
याद रखना लोग कुछ न समझें
बस, हैरान परेशान हो जायें’

दूसरे ने कहा
‘अपनी चिंताओं का बोझ उठाये
भला मैं क्या बोल पाऊंगा
लोग समझें नहीं
हैरान और परेशान हो जायें
इस सोच से ही मैं घबड़ा जाता हूं
अपने को बेबस पाता हूं
ऐसे चिंतन से क्या फायदा जो
चिंताओं को बुलाकर अपने ही हाथ मलें
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कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, August 19, 2008

आदमी अपने दिल पर नकाब लगा लेता है-हिंदी शायरी

काम पर है तो घर की याद
और घर पर अपने काम की चिंता
आदमी हो गया है एकाकी
हर पल बस एक ही सोच
कोई काम न रह जाये बाकी

सब जानते हैं दुनियां उनके
दम पर नहीं चलतीं
पाल रहे हैं जो जिंदगियां
वह भी उनके सहारे नहीं पलती
जिनके मालिक कहलाते हैं
मुसीबत के साथ देंगे
कहां यह ख्याल कर पाते हैं
दुनियां चलती है
अपनी गति से
आदमी को यह खुशफहमी पालना
अच्छा लगता है कि
सब हो रहा है उसकी मति से
अंधी दौड़ मे दौड़ रहा है आदमी
कोई चीज मिलना न रह जाये बाकी

अपनी असलियत से बेखबर आदमी
अपने दिल पर ही नकाब लगा लेता है
किसी और को क्या देगा
अपने आप को दगा देता है
आसमान में उड़ता हुआ आदमी
जमीन की हकीकतों को
चाहता है भुलाना
भेजता है अपने तनाव को स्वयं बुलाना
शोर में करता शांति की तलाश
बीभत्स दृश्यों में कांति की आस
हर पल भाग रहा है आदमी
कहीं कुछ देखना न रह जाये बाकी
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दीपक भारतदीप

Saturday, August 16, 2008

तुम मोबाइल भाई बन जाओ-हास्य कविता

सास ने कहा बहू से
‘देखो, आज है राखी का दिन
सब बहनों को भाईयों से निभाना
तुम जल्दी भाई को जाकर राखी बांधकर
लौट आओ
फिर पूरा घर है तुम्हें संभालना
फिर मुझे अपने भाई के घर है जाना
वहीं होगा मेरा आज खाना
पीछे से तुम्हारी ननद आयेगी
उसके लिये जल्दी भोजन बनाना
वह लौट जायेगी
फिर उसकी ननद अपने मायके
भाई को राखी बांधने आयेगी
फिर वह भी लौट जायेगी
ज्यादा लंबा क्या खींचूं इस तरह
सभी की ननदें बहुऐं का कर्तव्य भी निभाऐंगी
बाकी तुम सब स्वयं ही समझ जाना’

बहू ने कहा
‘मैं तो अपने भाई को मोबाइल पर ही
कह देती हूं कि मैं तो ट्रांसमीटर की तरह
खड़ी हूं तुम मोबाइल भाई बन जाओ
यहीं राखी बंधवाने आ जाओ
मैं आई तो ससुराल के रक्षाबंधन का
दूर तक फैला लिंक टूट जायेगा
टूट पड़ेगा मुझ पर जमाना
वैसे भी मां ने कहा है
बेटी, आजकल बेदर्द हैं लोग
सभी को है दिखावे का रोग
मुश्किल है बहु का कर्तव्य निभाना
फिर भी सास की हर बात को
चुपचाप मानती जाना
आप तो बेफिक्र होकर मायके जाओ
चाहे जब आओ
मेरा भाई जानता है
राखी के कच्चे बंधनों को पक्का बनाना
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Friday, August 15, 2008

इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चलके-व्यंग्य

इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ’ चल के‘-यह उस गीत का मुखरा है तो हर वर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को अक्सर कहीं न कहीं सुनाई देता है। आज तो इसे कई बार सुना जा सकता है। कितनी अजीब बात है कि इस गीत के बोल कानों से सुनकर मजा तो सभी लेते रहे पर पूरे समाज ने कभी इसे हृदयंगम नहीं किया।

यह गाना किसी समय प्रासंगिक रहा होगा पर क्या आज हम वर्तमान में इसकी पंक्तियों में हम अपने भूतकाल की निराशा को भविष्य के कर्णधारों के कंधों पर आशा के रूप में स्थापित कर अपने दायित्व से मूंह मोड़ते नजर नहीं आते? जब यह गीत बना होगा तब लोगों ने इसमें पता नहीं कौनसा देशभक्ति का जज्बात देखा। क्या उस समय की पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी को यह संदेश देना चाहती थी कि हमने तो आजादी प्राप्त कर ली अब तो हम आराम करेंगे और जब तुम बड़े हो जाओ तब तुम्हीं यह देश अच्छी तरह संभालना। चलिये यह मान लिया कि पुराने लोग ठीक थे पर जब तक बच्चे बड़ें हो तब तक इस देश का क्या होना था? देश में चिंतन,मनन और अध्ययन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहना चाहिए थी पर लोगों ने शायद उसे भविष्य की पीढ़ी पर छोड़ दिया। इस मध्य क्या हुआ? जिन लोगों को अपने लाभ के लिये समाज पर वर्चस्व स्थापित करना था कर लिया। ऐसे गीतों से समाज केवल भविष्य की पीढ़ी पर ही सारा दारोमदार डाल कर स्वयं चलता रहा। बच्चे बड़े हो गये पर उन्होंने भी फिर अपनी आगे वाली पीढ़ी के लिये गाया‘इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चलके’। मतलब हमें नहीं चलना। हम तो लाचार हैं तुम ही चलना।

वाद और नारों पर चलाने के लिये इस देश में फिल्मों ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। यही कारण है कि लोग आगे नहीं सोच पाते। दृढ़संकल्पित और जूझारू लोग नाइंसाफ करना और सहना दोनों ही अपराध मानते हैं। इंसाफ केवल दूसरों के साथ ही नहीं अपने साथ भी करना चाहिए। दूसरे के साथ इंसाफ करना और अपने लिये पाना दोनों ही वह डगर है जिस पर हर इंसान को चलना चाहिए। मगर यह क्या? आदमी न स्वयं दूसरे से इंसाफ करने के लिये तैयार है और न ही दूसरे से स्वयं पाने के लिये जूझने को तैयार है। उसे तो बस गाना है भविष्य की पीढ़ी के लिये‘इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के’।
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Thursday, August 14, 2008

बड़ा गुलाम तो छोटे गुलाम का साहब होता है-व्यंग्य

15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था या एक राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई थी। परंतत्र देश स्वतंत्र हुआ पर क्या परतंत्र का मतलब गुलामी होता है। कुछ प्रश्न है जिन पर विचार किया जाना चाहिये। विचार होगा इसकी संभावना बहुत कम लगती है क्योंकि वाद ओर नारों पर चलने वाले भारतीय बुद्धिजीवी समाज की चिंतन करने की अपनी सीमायें हैं और अधिकतर इतिहास में लिखे गये तथ्यों-जिनकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हेाती है- के आधार पर भविष्य की योजनायें बनाते है।

कई ऐसे नारे गढ़े गये हैं जिनको भुलाना आसान नहीं लगता। कोई कहता है कि चार हजार वर्ष तक भारत गुलाम रहा तो कोई दो हजार वर्ष बताकर मन का बोझ हल्का करता है। अगर मन लें वह गुलामी थी तो फिर क्या आज आजादी हैं? अगर यह आजादी है तो यह पहले भी थी। परंतत्रता और गुलामी में अंतर हैं। तंत्र से आशय कि आपके कार्य करने के साधनों से हैं। शासन, परिवार और संस्थाओं का आधार उनके कार्य करने का तंत्र होता है जिसमें मनुष्य और साधन संलिप्त रहकर काम करते हैं। परतंत्रता से आशय यह है कि इन कार्य करने वालों साधनों और लोगों का दूसरे के आदेश पर काम करना। सीधी बात करें तो देश का शासन करने का तंत्र ही आजाद हुआ था पर लोग अपनी मानसिकता को अभी भी गुलामी में रखे हुए हैे। अधिकतर लोगों का मौलिक चिंतन नहीं है और वह इतिहास की बातें कर बताते हैं कि वह ऐसा था और वहां यह था पर भविष्य की कोई योजना किसी के पास नहीं है।
जैसे जैसे प्रचार माध्यमों की शक्ति बढ़ रही है लोग सच से रू-ब-रू हो रहे हैं और वह इस आजादी को ही भ्रम बता रहे हैं। वह अपने विचार आक्रामक ढंग से व्यक्त करते हैं पर फिर गुलामों जैसे ही निष्कर्ष निकालते हैं। बहुत विचार करना और उससे आक्रामक ढंग से व्यक्त करने के बाद अंत में ‘हम क्या कर सकते हैं’ पर उनकी बात समाप्त हो जाती है।
शायद कुछ लोगों को यह लगे कि यह तो विषय से भटकाव है पर अपने समाज के बारे में विचार किये बिना किसी भी प्रकार की आजादी को मतलब समझना कठिन है। आज भी विश्व के पिछड़े समाजों में हमारा समाज माना जाता है। बीजिंग में चल रहे ओलंपिक में एक ही स्वर्ण पदक पर पूरा देश नाच उठा पर 110 करोड़ के इस देश में कम से कम 25 स्वर्ण पदक होता तो मानते कि हमारा तंत्र मजबूत है। जब भी इन खेलों में भारतीय दलों की नाकाम की बात होती है तो तंत्र को ही कोसा जाता है। यानि हमारा तंत्र कहीं से भी इतना प्रभावशाली नहीं है कि वह 25 स्वर्ण पदक जुटा सके। इक्का-दुक्का स्वर्ण पदक आने पर नाचना भी हैरानी की बात है। भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार अब यह स्वर्ण पदक जीता जबकि पाकिस्तान का एक मुक्केबाज इस कारनामे को पहले ही अंजाम दे चुका है पर वहां भी एसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। हमारे देश एक स्वर्ण पदक पर इतना उछलना ही इस बात का प्रमाण है कि लोगों के दिल को यह तसल्ली हो गयी कि ‘चलो एक तो स्वर्ण पदक आ गया वरना तो बुरे हाल होते’।

तंत्र की नाकामी को सभी जानते हैं। इस पर बहसें भी होती हैं पर निष्कर्ष के रूप में कदम कोई नहीं उठाता। वर्तमान हालतों से सब अंसतुष्ट हैं पर बदलाव की बात कोई सोचता नहीं है। अग्रेज अपनी ऐसाी शैक्षणिक प्रणाली यहां छोड़ गये जिसमें गुलाम पैदा होते हैंं। यह अलग बात है कि बड़ा गुलाम छोटे गुलाम का साहब होता है।

समाज और लोगों की आदतों को ही देख लें वह किस कदर सुविधाओं के गुलाम हो गये है। देश में आयात अधिक है और निर्यात कम। विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता क्या गुलामी नहीं है। जिसे पैट्रोल पर पूरा देश दौड़ रहा है उसका अधिकांश भाग विदेश से आता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रयास उसका अंग था पर क्या वह आज कोई कर रहा है। पूरा देश गैस, पैट्रोल का गुलाम हो गया है। अगर इनका उत्पादन पूरी तरह देश में होता तो कोई बात नहीं पर अगर किसी कारण वश कोई देश भारत को तेल का निर्यात बंद कर दे या ेिकसी अन्य कारण से बाधित हो जाये तो फिर इस देश का क्या होगा? पूरा का पूरा समाज अपंग हो जायेगा। अपने शारीरिक तंत्र से लाचार होकर सब देखता रहेगा।

फिर जिन अंग्रेजों को खलनायक मानते थे आज उसकी प्रशंसा करते हैं। उसकी हर बात को बिना किसी प्रतिवाद के मान लेते हैं। हमारे देश के अनेक लोग वहां अपने लिये रोजगार पाने का सपना देखते हैं। वैसी भी अंग्रेजों का रवैया अभी साहबों से कम नहीं है। वैसे पहले तो अपने भाषणों में सभी वक्ता अंग्रेजों को कोसते थे पर अब यह काम किसी के बूते का नहीं है। अमेरिका के मातहत अंग्रेजों से कोई टकरा पाये इसका साहस किसी में नहीं है। फिर उनके द्वारा छोड़ी गयी साहब और गुलाम की व्यवस्था में हम कौनसा बदलाव ला पाये।

फिर अंग्रेजों ने कोई भारत को गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने यहां रियासतों के राजा और महाराजाओं को हटाकर अपना शासन कायम किया था। यही कारण है कि आज भी कई लोग उनको वर्तमान भारत के स्वरूप का निर्माता मानते हैं। अगर देखा जाये तो जिस आम आदमी के आजादी से सांस लेकर जीने का सपना देखा गया वह कभी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तंत्र के संचालक बदले पर तंत्र नहीं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अंग्रेजों की बात करनी पड़ती है पर अगर स्थापना दिवस की बात की जाये तो इस बात को भुलाया जा सकता है कि उनके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि ब्रिटेन में भी सरकारी दफ्तर लालफीताशाही और कागजबाजी के शिकार हैं। वहां भी काम कम होता है। यानि हमारे यहां उनके द्वारा यहां स्थापित तंत्र ही काम रहा है जिसमें कागजों में लिखा पढ़कर फैसला किया जाता है या छोटे से छोटे काम पर चार लोग बैठकार लंबे समय तक विचार कर उसे करने का निर्णय करते हैं। वैसे तो लगता था कि अंग्रेजों ने केवल यहां ही साहब और गुलाम की व्यवस्था रखी पर दरअसल यह तो उनके यहां भी यही तंत्र काम कर रहा है। वहां भी कोई सभी साहब थोड़े ही हैं। वहां भी आम आदमी है और सभी लार्ड नहीं है। भारत से गये कुछ लोग भी वहां लार्ड की उपाधि से नवाजे गये हैं। मतलब यह कि भारतीय भी लार्ड हो सकते हैं यह अब पता चला है। ऐसे में ख्वामख्वाह में अंग्रेजों को महत्व देना। इससे तो अच्छा है कि इसे स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता तो अच्छा था।
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Saturday, August 9, 2008

अपने हाथ से पिए जहर की शिकायत नजर नहीं आती है-हिन्दी शायरी

सांप काटे से आदमी के मरने की
खबर ज़माने भर में
सनसनी फैला जाती है
उसके जहर को शौहरत दिला जाती है
पर पेट्रोल और गैस से निकला जहर
शराब और अफीम के नशे का कहर
पूरे समाज को डस रहा है धीरे धीरे
इसे लोगों की भीड़ जानते हुए भी
अपने से छिपा जाती है
दूसरों के मरने का दर्द होता है कम
पर शोक जताकर जमाने को बताया जाता है
संवेदनाएं का अहसास दिलाया जाता है
जहर है उसी का नाम जो पिए आदमी खुद
अपने हाथों से
पर जाहिर न करे बातों से
मर जाता है अपने ही

हाथ से फैलाए जहर से आदमी
पर उसके शिकायत कहीं नजर नहीं आती है
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Friday, August 8, 2008

आग के पास चैन की तलाश में जाते हैं-हिंदी शायरी

चलने को ताज महल भी चल जाता है
हिलने को कुतुबमीनार भी हिल जाता है
चांद लाकर यहां भेंट किया जाता है
तारा तोड़ कर जमीन पर सजाया जाता है
बेचने वाला सौदागर होना चाहिए
ख्वाब और भ्रम बेचना यहां आसान है
अपढ़ क्या पढ़ालिखा भी खरीददार बन जाता है

सच से परे ज्ञान पाकर
अक्ल से कौन काम कर पायेगा
जिनके पास ज्ञान है
वह कभी क्यों ख्वाब या भ्रम के बाजार जायेगा
सुख-सुविधा की दौड़ में
इनाम के रूप में चाहते लोग आराम
दिल में बैचेनी और ख्वाहिशों का बोझ ढोते हुए
गुजारते है सुबह और शाम
अंधेरे में जाते रौशनी की तलाश में
रहते है सौदागरों से वफा की आस में
बदन और मन को कर देती है जो राख
उसी आग के पास चैन की तलाश में जाते हैं
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Sunday, August 3, 2008

भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का-हिंदी नज्म

जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
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