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Wednesday, December 31, 2008

अखबार मिले तो अखाड़े की खबर पढ़ पायें-व्यंग्य कविता

पुराने बुद्धिजीवियों ने बना लिया
भाषा सम्मेलन को अखाड़ा
होना ही था कबाड़ा
एक ने कहा
‘पुराने विचारों को नये संदर्भ में
देख कर आग बढ़ते जायें
अपनी परंपराओं के सहारे ही
आधुनिक संसार में अपनी भूमिका बनाये’।

दूसरे ने कहा
‘भूल जाओ अपना पुराना ज्ञान
नये ख्याल से जुड़कर करो अभिमान
चलो पश्चिम की राह
भले ही सूरज वहां डूबता हो
पूर्व में हैं पौंगा पंथ
ऐसा ज्ञान भी किस काम का
जिसमें आदमी ऊबता हो
इसलिये हमने बनाये हैं नये देवता
जो गरीबों और कमजोरों के गुण गायें
नारे लगाते और वाद गाते
आप सभी नये भी उसी राह चले जायें।’

नये लोग हैरान और परेशान थे
तभी एक आया और पुराना बुद्धिजीवी
और बोला-
न इसकी सुनो
न उसकी बात गुनो
जहां मन हो वहीं चलते जाओ
नशे में न होश खोना
अपने लिये आगे संकट हो
कभी ऐसे बीज न बोना
आंखें रखना खुली
अपनी अक्ल से अपना बोझा ढोना
एक की राह पर चलकर
पौंगा पंथी बन जाओगे
दूसरे की राह चले
तो पढ़े लिखे गुलाम बनकर
विदेशी बोझा उठाओगे
आजादी से अपनी सांस लेना
कोई और बताये राह
इससे अच्छा है अपने विवेक से चुन लेना
देख कर भी सीखा जाता है बहुत कुछ
जरूरी नहीं है हर बात तुम्हें सिखायें।’

नये युवक खड़े सम्मेंलन के अखाड़े में
शब्दिक युद्ध देख रहे थे
तय नहीं कर पाये कि
‘कहा से चलें और कहां जायें
आखिरं एक सोकर उठे बुद्धिजीवी ने कहा
‘चलो अब सभी घर जायें
हम तो सोते रहे पूरे कार्यक्रम में
यहां क्या हुआ
कल अखबार मिले तो
इस अखाड़े की खबर पढ़ पायें।’

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Monday, December 29, 2008

अपने गम पर पछताओगे बाद में-हिंदी शायरी

खींचते गये बिना सोचे समझे लकीर पर लकीर
खुद ही नहीं समझे, बन गयी ऐसी एक तस्वीर ?
कागज पर लिखे कई शब्द जो शायरी बन गये
फिर भी तन्हाई का संग रहा,रूठी रही तकदीर
ढूंढ रहे है कोई साथी भटके लोगों की भीड़ में
वफा के वादे झूठे करते, इंसान हो या कोई पीर
यकीन कोई नहीं करता कि हम कभी निभायेंगे
टूटे बिखरे लोगों को दिखाया चाहे अपना दिल चीर
......................................
मत तड़पो किसी की याद में
मिलना बिछड़ना तो दुनियां का कायदा है
जिनके लिये दिल को तकलीफ देते हो
वह भुलाकर कहीं मना रहे जश्न
जान लोग जब यह सच तो
अपने गम पर पछताओगे बाद में

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Thursday, December 25, 2008

जब समाजों के प्रचारक स्वयं यौन शिक्षा प्रदान करेंगे-व्यंग्य

अगर विश्व में निर्मित सभी धार्मिक समाजों और समूहों का यही हाल रहा तो आगे चलकर कथित रूप से सभी धर्मों के कथित गुरु और ठेकेदार सामान्य लोगों को धार्मिक ग्रंथों की बजाय यौन शिक्षा देने लगेंगे। जैसे जैसे विश्व में लोग सभ्य और शिक्षित हो रहे हैं वह छोटे परिवारों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों में आधुनिक शिक्षा का बोलबाला है उनकी जनसंख्या कम हो रही है जिनमें नहीं है उनकी बढ़ रही है। हालांकि इसके पीछे स्थानीय सामाजिक कारण अधिक हैं पर धार्मिक गुरु जनसंख्या की नापतौल में अपने समाज को पिछड़ता देख लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने की सलाहें दे रहे हैं। जिन धार्मिक समाजों की संख्या बढ़ रही है वह भी अपने लोगों को बच्चे का प्रजनन रोकना धर्म विरोधी बताकर रोकने का प्रयास कर रहे हैं। कायदे से सभी धर्म गुरुओं को केवल व्यक्ति में सर्वशक्तिमान की आराधना और समाज के लिये काम करने की प्रेरणा देने का काम करना चाहिये पर वह ऐसे बोलते हैं जैसे कि सामने मनुष्य नहीं बल्कि चार पाये वाला एक जीव बैठा हो।

उस दिन अखबार में पढ़ा विदेश में कोई धर्म प्रचारक अपने समाज के युवा जोड़ों से सप्ताह में सात दिन ही यौन संपर्क करने का आग्रह कर डाला। उसके अनुसार यह सर्वशक्तिमान का उपहार है और इसका इस्तेमाल करते हुए उसे धन्यवाद देना चाहिये। हर होती है हर चीज की। इस तरह के आग्रह करना अपने आप में एक हास्याप्रद बात लगती है। शरीर के समस्त इंद्रियां आदमी क्या पशु तक को स्वतः ही संचालित करती हैं और उसमें कोई किसी को क्या सलाह और प्रेरणा देगा? मगर धर्मगुरुओं और ठेकेदारों की चिंता इस बात की है कि अगर उनके समाज की जनसंख्या कम हो गयी तो फिर उनके बाद आने वाली गुरु पीढ़ी का क्या होगा? वह उनको ही कोसेगी कि पुराने लोगों ने ध्यान नहीं दिया

अपने ही देश में एक कथित धार्मिक विद्वान ने सलाह दे डाली कि जो धनी और संपन्न लोग हैं वह अधिक बच्चे पैदा करें। एक तरह से उनका आशय यह है कि अमीर लोगों को ही अधिक ब्रच्चे पैदा करने का अधिकार है। जब अपने देश में हो उल्टा रहा है। जहां शिक्षा और संपन्नता है वहां लोग सीमित परिवार अपना रहे हैं-हालांकि उसमें भी कुछ अपवाद स्वरूप अधिक बच्चे पैदा करते हैं। जहां अशिक्षा, गरीबी और भुखमरी है वहां अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैंं। कई बार जब गरीबी और भुखमरी वाली रिपोर्ट टीवी चैनलों में देखने और अखबार पढ़ने का अवसर मिलता है तो वहां उन परिवारों में एक दो बच्चे की तो बात ही नहीं होती। पूरे पांच छह कहीं आठ बच्चे मां के साथ खड़े दिखाई दे जाते हैं जो कुपोषण के कारण अनेक तरह की बीमारियों के ग्रसित रहते हैं। ऐसा दृश्य देखने वाले शहरों के अनेक संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की हाय निकल जाती है। वह कहतीं हैं कि कमाल है इनको बिना किसी आधुनिक चिकित्सा के यह बच्चे आसानी से हो जाते हैं यहां तो बिना आपरेशन के नहीं होते।’

तय बात है कि ऐसा कहने वाली उन महिलायें उन परिवारों की होती हैं जहां बर्तन से चैके तक का काम बाहर की महिलाओं के द्वारा पैसा लेकर किया जाता है।

हालांकि समस्या केवल यही नहीं है। लड़कियों के भ्रुण की हत्या के बारे में सभी जानते हैं। इसके कारण समाज में जो असंतुलन स्थापित हो रहा है। मगर इस पर धार्मिक गुरुओं और सामाजिक विद्वानों का सोच एकदम सतही है।

कम जनसंख्या होना या लडकियों का अनुपात में कम होना समस्यायें नहीं बल्कि उन सामाजिक बीमारियों का परिणाम है जिनको कथित धार्मिक ठेकेदार अनदेखा कर रहे हैं। हमारे देश में आदमी पढ़ा लिखा तो हो गया है पर ज्ञानी नहीं हुआ है। जिन लोगों ने अर्थशास्त्र पढा है उसमें भारत के पिछड़े होने का कारण यहांं की साामजिक कुरीतियां भी मानी जाती है। कहने को तो तमाम बातें की जा रही हैं पर समाज की वास्तविकताओं को अनदेखा किया जा रहा है। दहेज प्रथा का संकट कितना गहरा है यह समझने की नहीं अनुभव करने की आवश्यकता है।

लड़की वाले हो तो सिर झुकाओ। इसके लिये भी सब तैयार हैं। लड़के वाले जो कहें मानो और लोग मानते हैं। लड़की के माता पिता होने का स्वाभिमान कहां सीखा इस समाज ने क्योंकि उन्हीं माता पिता को पुत्र का माता पिता होने का कभी अहंकार भी तो दिखाना है!

यह एक कटु सत्य है कि अगर किसी को दो बच्चे हैं तो यह मत समझिये कि वहां परिवार नियोजन अपनाया गया होगा। अगर पहले लड़की है और उसके बाद लड़का हुआ है और दोनों की उमर में अंतराल अधिक है तो इसमें बहुत कुछ संभावना इस बात की भी अधिक लगती है कि वहां अल्ट्रा साउंड से परीक्षण कराया गया होगा। अनेक ऐसी महिलायें देखने को मिल सकती हैं जिन्होंने बच्चे दो ही पैदा किये पर उन्होंने अपने गर्भपात के द्वारा अपने शरीर से खिलवाड़ कितनी बार अपनी इच्छा से या दबाव में होने दिया यह कहना कठिन है।

एक धार्मिक विद्वान ने अपने समाज के लोगों को सलाह दी कि कम से कम चार बच्चे पैदा करो। दूसरे समाज के लोगों की बढ़ती जनसंख्या का मुकाबला करने के लिये उनको यही सुझाव बेहतर लगां।
अपने देश की शिक्षा पाश्चात्य ढंग पर ही आधारित है और जो अपने यहां शिक्षितों की हालत है वैसी ही शायद बाहर भी होगी। धार्मिक शोषण का शिकार अगर शिक्षित होता है तो यह समझना चाहिये कि उसकी शिक्षा में ही कहीं कमी है पर पूरे विश्व में हो यही रहा है। ऐसा लगता है कि पश्चिम में धार्मिक शिक्षा शायद इसलिये ही पाठ्यक्रम से ही अलग रखी ताकि धार्मिक गुरुओं का धंधा चलता रहे। हो सकता है कि धार्मिक गुरु भी ऐसा ही चाहते हों।

वैसे इसमें एक मजेदार बात जो किसी के समझ में नही आती। वह यह कि जनंसख्या बढ़ाने के यह समर्थक समाज में अधिक बच्चे पैदा करने की बात पर ही क्यों अड़े रहते हैं? कोई अन्य उपाय क्यों नहीं सुझाते ?
पश्चिम में एक विद्वान ने सलाह दे डाली थी कि अगर किसी समाज की जनंसख्या बढ़ानी है और समाज बचाना है तो समाज पर एक विवाह का बंधन हटा लो। उसने यह सलाह भी दी कि विवाहों का बंधन तो कानून में रहना ही नहीं चाहिये। चाहे जिसे जितनी शादी करना है। जब किसी को अपना जीवन साथी छोड़ना है छोड़ दे। उसने यह भी कहा कि अगर अव्यवस्था का खतरा लग रहा हो तो उपराधिकार कानून को बनाये रखो। जिसका बच्चा है उसका अपनी पैतृक संपत्ति पर अधिकार का कानून बनाये रखो। उसका मानना था कि संपन्न परिवारों की महिलायें अधिक बच्चे नहीं चाहतीं और अगर उनके पुरुष दूसरों से विवाह कर बच्चे पैदा करें तो ठीक रहेगा। संपन्न परिवार का पुरुष अपने अधिक बच्चों का पालन पोषण भी अच्छी तरह करेगा। कानून की वजह से उनको संपत्ति भी मिलेगी और इससे समाज में स्वाभाविक रूप से आर्थिक और सामाजिक संतुलन बना रहेगां।

उसके इस प्रस्ताव का जमकर विरोध हुआ। उसने यह सुझाव अपने समाज की कम होती जनसंख्या की समस्या से निपटने के परिप्रेक्ष्य में ही दिया था पर भारत में ऐसा कहना भी कठिन है। कम से कम कथित धार्मिक विद्वान तो ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि उनकी भक्ति की दुकान स्त्रियों की धार्मिक भावनाओं पर ही चल रही हैं। ऐसा नियम आने से समाज में अफरातफरी फैलेगी और फिर इन कथित धर्मगुरुओं के लिये ‘‘सौदे की शय’ के रूप में बना यह समाज कहां टिक पायेगा? सभी लोग ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि जिन समाजों में अधिक विवाह की छूट है उसमें सभी ऐसा नहीं करते। यह बात निश्चित है पर जो अपने रिश्तों के व्यवहार के कारण चुपचाप मानसिक कष्ट झेलते हैं वह उससे मुक्त हो जायेंगे और फिर तनाव मुक्त भला कहां इन गुरुओं के पास जाता है? ऐसा करने से उनके यहां जाने वाले मानसिक रोगियों की संख्या कम हो जायेगी यह निश्चित है। अगर तनाव में फंसे लोग जब अपने जीवन साथी बदलते रहेंगे तो फिर उनको तनाव के लिये अध्यात्म शिक्षा की आवश्यकता ही कहां रह जायेगी?

बहरहाल अपनी जनसंख्या घटती देख विश्व के अनेक धर्म प्रचारक जिस तरह अब यौन संपर्क वगैरह पर बोलने लगे हैं उससे काम बनता नजर नहीं आ रहा हैं। अब तो ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनियां में धार्मिक प्रचारक यौन संपर्क का ज्ञान बांटेंगे। वह पुरुषों को बतायेंगे कि किसी स्त्री को कैसे आकर्षित किया जाता है। लंबे हो या नाटे, मोटे हो या पतले और काले हो या गोरे तरह अपने को यौन संपर्क के लिये तैयार करो। अपनी शिष्याओं से वह ऐसी ही शिक्षा महिलाओं को भी दिलवायेंगे।’
वह कंडोम आदि के इस्तमाल का यह कहकर विरोध करेंगे कि सब कुछ सर्वशक्तिमान पर छोड़ दो। जो करेगा वही करेगा तुम तो अपना अभियान जारी रखो। बच्चे पैदा करना ही सर्वशक्तिमान की सेवा करना है।

इससे भी काम न बना तो? फिर तो एक ही खतरा है कि धर्म प्रचारक और उनके चेले सरेआम अपने सैक्स स्कैण्डल करेंगे और कहेंगे कि सर्वशक्तिमान की आराधना का यही अब एक सर्वश्रेष्इ रूप है।

यह एक अंतिम सत्य है कि पांच तत्वों से बनी मनुष्य देह में तीन प्रकृतियां-अहंकार,बुद्धि और मन- ऐसी हैं जो उससे संचालित करती हैं और सभी धर्म ग्रंथ शायद उस पर नियंत्रण करने के लिये बने हैं पर उनको पढ़ने वाले चंद लोग अपने समाजों और समूहों पर अपना वर्चस्प बनाये रखने के लिये उनमें से उपदेश देते है।ं यह अलग बात है कि उनका मतलब वह भी नहीं जानते। पहले संचार माध्यम सीमित थे उनकी खूब चल गयी पर अब वह तीव्रतर हो गये हैं और सभी धर्म गुरुओं को यह पता है कि आदमी आजकल अधिक शिक्षित है और उस पर नियंत्रण करने के लिये अनेक नये भ्रम पैदा करेंगे तभी काम चलेगा। मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी माना जाता है और इसलिये समाज या समूह के विखंडन का भय उसे सबसे अधिक परेशान करता है और कथित धार्मिक गुरु और ठेकेदार उसका ही लाभ उठाते हैं। यह अलग बात है कि जाति,भाषा,धर्म और क्षेत्र े आधार पर समाजों और समूहों का बनना बिगड़ना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिस पर किसी का बस नहीं। जिस सर्वशक्तिमान ने इसे बनाया है उसके लिये सभी बराबर हैं। कोई समाज बिगड़े या बने उसमें उसका हस्तक्षेप शाायद ही कभी होता हो। मनुष्य सहज रहे तो उसके लिये पूरी दुनियां ही मजेदार है पर समाज और समूहों के ठेकेदार ऐसा होने नहीं देते क्योंकि भय से आदमी को असहज बनाकर ही वह अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
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Saturday, December 20, 2008

आतंक के साये में कविराज-हास्य व्यंग्य

देश में आतंकवाद को लेकर तमाम तरह की चर्चा चल रही है। अनेक तरह की संस्थायें शपथ लेने के लिये कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। अनेक जगह छात्र और शिक्षक सामूहिक रूप से शपथ ले रहे हैं तो कई कलाकार और लेखक भी इसी तरह ही योगदान कर रहे हैं। सवाल यह है कि क्या आतंकवाद से आशय केवल बम रखकर या बंदूक चलाकर सामूहिक हिंसा करने तक ही सीमित है? टीवी पर ऐसे डरावने समाचार आते हैं भले ही वह उसमें आंतक जैसा कोई रंग नहीं देखते पर आदमी के दिमाग में वैसे ही खौफ छा जाता है जैसे कि कहीं बम या बंदूक की घटना से होता है। उस समय बम और बंदूक की हिंसा का परिदृश्य भी फीका नजर आता है।
हुआ यूं कि उस दिन कविराज बहुत सहमे हुए से एक डाक्टर के पास जा रहे थे। अपने सिर पर उन्होंने टोपी पहन ली और मुंह में नाक तक रुमाल बांध लिया। हुआ यूं कि उनकी कुछ कवितायें किसी पत्रिका में छपी थीं। जो संभवतः फ्लाप हो गयी क्योंकि जिन लोगों ने उसे पढ़ा वह उसके कविता के रचयिता कवि से उनका अर्थ पूछने के लिये ढूंढ रहे थे। पत्रिका कोई मशहूर नहीं थी इसलिये कुछ लोगों को फ्री में भी भेजी जाती थी। उनमें कविराज की कवितायें कई लोगों को समझ में नही आयी और फिर वह उनसे वैसे ही असंतुष्ट थे और अब बेतुकी कविता ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वह कवि से वाक्युद्ध करने का अवसर ढूंढ रहे थे। कविराज उस दिन घर से इलाज के लिये यह सोचकर ही निकले कि कहीं किसी से सामना न हो जाये और इसलिये अपना चेहरा छिपा लिया था।

मन में भगवान का नाम लेते हुए वह आगे बढ़ते जा रहे थे डाक्टर का अस्पताल कुछ ही कदम की दूरी पर था तब उन्होंने चैन की सांस ली कि चल अब अपनी मंजिल तक आ गये। पर यह क्या? डाक्टर के अस्पताल से आलोचक महाराज निकल रहे थे। वह उनके घोर विरोधी थै। वैसे उन्होंने कविराज की कविताओं पर कभी कोई आलोचना नहीं लिखी थी क्योंकि वह उनको थर्ड क्लास का कवि मानते थे। दोनों एक ही बाजार में रहते थे इसलिये जब दोनेां का जब भी आमना सामना होता तब बहस हो जाती थी।

दोनों की आंखें चार हुईं। आलोचक महाराज शायद कविराज को नहीं पहचान पाते पर चूंकि वह घूर कर देख रहे थे तो पहचान लिये गये। आलोचक महाराज ने कहा-‘तुम कविराज हो न! हां, पहचान लिया। देख ली तुम्हारी सूरत अब तो वापस डाक्टर के पास जाता हूं कि कोई ऐसी गोली दे जिससे किसी नापसंद आदमी की शक्ल देखने पर जो तनाव होता है वह कम हो जाये।’

कविराज के लिये यह मुलाकात हादसे से कम नहीं थी। अपनी छपी कविताओं की चर्चा न हो इसलिये कविराज ने सहमते हुए कहा-‘क्या यार, बीमारी में भी तुम बाज नहीं आते।
आलोचक महाराज ने कहा-‘हां, यही तो मैं कह राह हूं। मैं जुकाम की वजह से परेशान हूं और तुम अपना थोबड़ा सामने लेकर आ गये। शर्म नहीं आती। यहां क्यों आये हो?’
कविराज ने बड़ी धीमी आवाज में कहा-‘ डाक्टर के पास कोई आदमी क्यों जाता हैं? यकीनन कोई कविता सुनाने तो जाता नहीं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मगर हुआ क्या? बुखार,जुकाम,खांसी या सिरदर्द? कोई बडी बीमार तो हुई नहीं हुई क्योंकि खुद ही चलकर आये हो।’
कविराज ने कहा-‘तुम्हें क्यों अपनी बीमारी बताऊं? तुम मेरी कविता पर तो आलोचना लिखोगे नहीं पर बीमारी पर कुछ ऐसा वैसा लिखकर मजाक उड़ाओगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘मैं तुम्हारी तरह नहीं हूं जो इस बीमारी में भी मेरे को शक्ल दिखाने आ गये। बताने में क्या जाता है? हो सकता है कि मैं इससे कोई अच्छा डाक्टर बता दूं। यह डाक्टर अपना दोस्त है पर इतना जानकार नहीं है।’
कविराज ने कहा-‘बीमारी तो नहीं है पर हो सकती है। मैं सावधानी के तौर पर दवाई लेने आया हूं।’
आलोचक महाराज ने कहा-‘ कर दी अपने बेतुकी कविता जैसी बात। मैं तो सोचता था कि बेतुकी कविता ही लिखते हो पर तुम बेतुके ढंग से बीमार भी होते हो यह पहली बात पता लगा।’

कविराज ने कहा-‘‘ बात यह हुई कि आज मैंने घर पर देशी घी से बना खाना बना था। पत्नी के मायके वाले आये तो उसने जमकर देशी धी का उपयोग किया। जब टीवी देख रहे थे तो उसमें ‘देशी धी के जहरीले होने के संबंध में कार्यक्रम आ रहा था। पता लगा कि उसमें तो साबुन में डाले जाने वाला तेल भी डाला जाता है। वह बहुत जहरीला होता है। उसमें उस ब्रांड का नाम भी था जिसका इस्तेमाल हमारे घर पर होता है। यार, मेरे मन में तो आतंक छा गया। मैंने सोचा कि बाकी लोग तो मेरा मजाक उड़ायेंगे क्योंकि वह तो उस खबर को देखना ही नहीं चाहते थे। इसलिये अकेला ही चला आया।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘डरपोक कहीं के! तुम्हारा चेहरा तो ऐसा लग रहा है कि जैसे कि गोली खाकर आये हो। अरे, यार घी खाया है तो अब मत खाना! ऐसा कोई धी नहीं है जो गोली या बम की तरह एक साथ चित कर दे।’

कविराज ने कहा-‘पर आदमी टीन लेकर रखेगा तो यह जहर धीरे धीरे अपने पेट में जाकर अपना काम तो करेगा न! गोली या बम की मार तो दिखती है पर इसकी कौन देखता है। यह जहर कितनों को मार रहा है कौन देख रहा है? सच तो यह है कि मुझे इसका भी आतंक कम दिखाई नहीं देता। यार उस दिन एक मित्र बता रहा था कि हर खाने वाली चीज की डुप्लीकेट बन सकती है। तब से लेकर मैं तो आतंकित रहता हूं। जो चीज भी खाता हूं उसके डुप्लीकेट होने का डर लगता है।’

आलोचक महाराज ने कहा-‘तो क्या डर का इलाज कराने आये हो?’
कविराज ने कहा -‘‘नहीं डाक्टर से ऐसी गोली लिखवाने आया हूं जो रोज ऐसा जहर निकाल सके। जिंदा रहने के लिये खाना तो जरूरी है पर असली या नकली है इसका पता लगता नहीं है इसलिये कोई ऐसी गोली मिल जाये तो कुछ सहारा हो जायेगा। गोली से भले ही रोज का जहर नहीं निकले पर अपने को तसल्ली तो हो जायेगी कि हमने गोली ली है कुछ नहीं होगा। नकली खाने के आतंक में तो नहीं जिंदा रहना पड़ेगा।

दोनों की बात उनका डाक्टर मित्र सुन रहा था और वह बाहर आया और कविराज से बोला-‘इस नकली खाने के आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह जो बीमारियां पैदा करता है उनका इलाज तो संभव है पर उसके आतंक से बचने का कोई इलाज नहीं है। वह तो जब बीमारी सामने आये तभी मेरे पास आना।’

कविराज का मूंह उतर गया। वह बोले-ठीक है यार, कम से कम यह तसल्ली तो हो गयी कि ऐसी कोई गोली नहीं है जो नकली खाने के आतंक का इलाज कर सके। तसल्ली हो गयी वरना सोचा कि कहीं हम पीछे न रह जायें इसलिये चला आया।’

कविराज वापस जाने लगे तो आलोचक महाराज ने कहा-‘इस पर कोई कविता मत लिख देना क्योंकि मैं तब लिख दूंगा कि तुम कितने डरपोक हो। कितनी बेतुकी बात की है‘नकली खाने का आतंक’। कहीं लिख मत देना वरना लोग हंसेंगे और मैं तो तुम्हें अपना दोसत कहना ही बंद कर दूंगा। मेरी सलाह है कि तुम टीवी कम देखा करो क्योंकि तुम अब आतंक के कई चेहरे बना डालोगे जैसे चैनल वाले रोज बनाते हैं।’
कविराज ने कहा-‘‘यार, मैं तो नकली खाने के आतंक ने इतना डरा दिया है कि इस पर कविता लिखने के नाम से ही मेरे होश फाख्ता हो जाते हैं।
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Sunday, December 14, 2008

अपनी असली दुनिया में लौट आया करो-व्यंग्य कविता

वह खुद हैं राह में भटके हुए
एक ही ख्याल पर अटके हुए
बताते हैं उन लोगों को रास्ता
हवस के पेड़ पर जो लटके हुए
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पर्दे पर चलचित्र देखकर
ख़्वाबों में न खो जाया करो
जो मरते दिखते हैं
वह फिर जिदा हो जाया करते हैं
जो मर गए
वह भी कभी कभी जिदा
नजर आया करते हैं
माया नगरी में कहीं सत्य नहीं बसता
जेब हो खाली तो
देखने के लिए कुछ नहीं बचता
रंगबिरंगे चेहरों के पीछे हैं
काले चरित्र के व्यक्तित्व का मालिक
देखो तो, दिल बहला लेना उनको देखकर
फिर अपनी असली दुनिया में लौट आया करो

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Thursday, December 11, 2008

सुबह के बने रिश्ते दोपहर तक हो जाते हैं बासी-व्यंग्य कविता

कभी कभी मन को घेर लेती है उदासी
दिन भर गुजरता है
जाने पहचाने लोगों के बीच
फ़िर भी अजनबीपन का अहसास साथ रहता है
जुबान से निकलते जो शब्द निकलते हैं
आदमी के दिल से उपजे नही लगते
उनका अंदाज़-ऐ-बयाँ साफ़ कहता है
सुबह जो बनते हैं रिश्ते
दोपहर तक हो जाते हैं बासी

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Wednesday, December 10, 2008

हर जगह गरीब मजदूर पर ही होता निशाना-व्यंग्य कविता

अपने लिए नहीं मांगते सिंहासन
दो पल की रोटी की खातिर
मजदूर इधर से उधर जाते
अपने पसीने की धारा में
अपना पूरा जीवन गुजारते
नहीं किसी का खून चूसने जाते
नहीं करते चोरी
न करते लूट
इसलिए रोज चैन की नींद सो जाते

जिनका जीवन बीतता है रोज
छल कपट के साथ
दौड़ते जाते माया के पीछे
फिर भी नहीं आती वह हाथ
दिन में चैन नहीं है
रात को नींद नही
वह गरीब मजदूर को नहीं सह पाते

ऊंचे महलों में भी जिनको सुख नसीब नही
थाली में सजे पकवान
पर पेट में जाने का उनकों रास्ता नहीं
मजदूर के तिनकों के घरोंदों को
भी देखते तिरछी नजर से
उसकी रोटी के सूखे टुकड़े को
देख कर उनके पेट जलते
क्योंकि सुख का मतलब वह नहीं समझ पाते

शायद इसलिए जब भी
होता है कहीं हंगामा
मजदूर बनता है निशाना
दुनिया के लोग भले ही अमीरों के
स्वांग पर करते हैं नजर
पर मजदूर के सच की अग्नि की
आंच भी नहीं झेल पाते
कोई नहीं होता हमदर्द पर फिर भी
मजदूर जिए जाते
यह जिन्दगी सर्वशक्तिमान की देन है
यही सन्देश फैलाते जाते
अमीरों के चौखट पर
हाजिर करने वाले बहुत होते पर
पर मजदूरों के पसीने के बिना
कभी किसी के महल नहीं बन पाते

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Monday, December 8, 2008

अपना अपना दाव-हास्य कविता

पोता घर में घुसा
तो दादा ने पूछा
'क्या देखकर आया
रिजल्ट आ गया न'
पोता बोला
''हाँ गया
पर अभी पूरी तरह नहीं मालुम
किसको कितनी सीटें मिलीं हैं'

दादा बोले
''तुम सुबह कहकर निकले थे
मैं रिजल्ट देखने जा रहा हूँ
अगर चुनाव का रिजल्ट देखना था
तो घर पर ही देख लेते
कुछ हम से भी राजनीति सीख लेते
हम ही बता देते
किसकी सूरत हुई फक और किसकी खिली है''

पोता बोला
''दादाजी आपकी पीढी
मुफ्त में मजे लेने की आदी है
हमारे लिए तो समय की बर्बादी है
फिल्म, क्रिकेट और चुनाव है
आपके लिए मनोरंजन और खेल
पर हम खर्च करने के आदी हैं
दूसरे की हार जीत पर
हंसना-रोना समय की बर्बादी है
हम तो खेलते हैं अपना दाव
जीत हमारी हो
इसलिये देखते भाव
दाव जीते तो होती है पार्टी
हारें तो निकल जाता तेल
फिल्म में आप देखते अभिनेता की सूरत
चुनाव में देखते प्रत्याशी की सीरत
हमें इससे मतलब नहीं
हमें तो अपने दाव जीतने से वास्ता
फ़िदा उसी पर होते हैं
दिखाता है जो दाव जीतने का रास्ता
हम तो अपना खेल भी
साथ-साथ खेलते है
यही शिक्षा नई पीढ़ी को मिली'

पोता चला गया तो दादा ने
अपने बेटे से कहा
''कुछ गलती हमसे ही हुई है
हमने तो ऐसी शिक्षा नही दी
फिर इसे कहाँ मिली
मुझसे तो दूर बचपन गुजारा था इसने
पर तुम्हारे तो पास रहा
फिर बनी संस्कारों से परे रहा
जिसे खेल और मनोरंजन
करना नहीं आता
अपना धन और मन तबाह करना आता है
ऐसी नयी पीढी मिली

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Saturday, December 6, 2008

खुशी हो या गम लोग सज जाते हैं-व्यंग्य कविता

फिल्में का असर कुछ हुआ है
इस तरह असर कि लोग
खुशी हो या गम सज जाते हैं
दिल में नहीं जज्बात
इसलिये चेहरे पर नहीं दिखते
पर फिर भी मौके पर
अपनी हाजिरी देने पहुंच जाते हैं
मत मांगो उनसे प्रमाण
अभिनय देखने के आदी हो गये है लोग
इसलिये खुद भी दिखाने पहुंच जाते हैं
...........................

दिल में हो या न हो जज्बात
दिखाने कहीं भी पहुंच जाओ
और खूब प्रचार पाओ
गम हो गया खुशी का मौका
इस पर मत डालो नजर
चेहरे पर आती नहीं वैसी लकीर
जैसे है सामने मंजर
पर फिर भी वहां दिख जाओ
अगर कहीं आ गये जमाने की नजर में
तो चमक जाओगे
हर जगह नाम पाओगे
सभी का यही है दस्तूर
मौका मिलने पर उसका फायदा उठाओ

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Friday, November 28, 2008

कशमकश-हिंदी शायरी

जब हकीकतें होती बहुत कड़वी
वह मीठे सपनों के टूटने की
चिंता किसी को नहीं सताती
जहां आंखें देखती हैं
हादसे दर हादसे
वहां खूबसूरत ख्वाब देखने की
सोच भला दिमाग में कहा आती

दर्द से लड़ते आंसू सूख गये है जिसके
हादसों पर उसकी हंसी को मजाक नहीं कहना
उसकी बेरुखी को जज्बातों से परे नही समझना
कई लोग रोकर इतना थक जाते
कि हंसकर ही दर्द से दूर हो पाते
जिक्र नहीं करते वह लोग अपनी कहानी
क्योंकि वह हो जाती उनके लिये पुरानी
रोकर भी जमाना ने क्या पाता है
जो लोग जान जाते हैं
अपने दिल में बहने वाले आंसू वह छिपाते हैं
इसलिये उनकी कशकमश
शायरी बन जाती
शब्दों में खूबसूरती या दर्द न भी हो तो क्या
एक कड़वे सच का बयान तो बन जाती
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Monday, November 24, 2008

बिक जाते हैं हर अगले पल जो-हिंदी शायरी

सिद्धांतों का तो बस नाम होता है
पर्दे के पीछे तो पैसे का काम होता है
लोगों की एकता के लिये करते हैं वह शो
गाते हैं बस उसका नाम, जेब भरता है जो

इशारों को समझा करो
लिख गया है शब्द, उसे पढ़ा करो
दिल बहलाने के लिये इंसानों के जज्बात से
खेलते हैं सौदागर
जहां से आती है दौलत की सौगात
उसका ही गुणगान करते हैं वो
परदेसियों के इशारों पर देश को नचाते हैं वो
अपनों से दिल के रिश्ते का दिखावा
खूब वह करते हैं
नजरें बाहर लगाये रहते हैं वो

दिखा रहे हैं वह
उसे अनदेखा कर डालो नजर उस पर
छिपा रहे हैं जो
आंखों में कुछ और दिखाते
दिल में किसी और को बसाते
वफा की बात करते हैं वह हमेशा
बिक जाते हैं हर अगले पल जो

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Saturday, November 15, 2008

सवाल कभी उन्होंने किया नहीं-व्यंग्य शायरी

दिन के सभी पल गुजारे जिन के साथ
रात की बैचेनी पर कभी
सवाल कभी उन्होंने किया नहीं
दिन में ही जब बैचेनी हुई तो
उनकी आंखों से दूर थे
पर फिर उन्होंने याद किया नहीं
लड़ते रहे अपने दर्द के साथ अकेले
वह बैचेन न हों इसलिये इतला किया नहीं
पर जब फिर दिन गुजारने
पहुंचे तो
हमारी गैर हाजिरी पर
सवाल उन्होंने किया नहीं
किस किसकी शिकायत करें
किस पर दिखायें गुस्सा
किसके साथ किफायत करें
मकसद के सब हैं
आते ही अपना मुकाम
छोड़ जाते हैं साथी
हम पर क्या गुजरती है
सवाल कभी उन्होंने किया नहीं


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Monday, November 3, 2008

पंगेबाजी जिनका खेल है वही खेलें-हास्य कविता

फंदेबाज घर आया
साथ में हिट होने का फार्मूला भी लाया
सुनाते हुए बोला
"आज तो गजब हो गया
मेरे भतीजे ने एक लडकी की दिल जीतने के लिए
एक दांव खेला
पहले उसके दोस्त ने उस लडकी को छेड़ा
फिर मेरे भतीजे की मार को झेला
फिर उसने अपने दोस्त के लिए भी
ऐसी ही भूमिका निभाई
वही से यह आईडिया मेरे दिमाग में आया
क्यों न तुम भी अंतर्जाल पर हिट होने के लिए
किसी "पंगेबाज" से फिक्सिंग कर लेते
दोनों मिलकर एक दूसरे को हिट कर देते
सब जगह चलती है यह नूरा कुश्ती
जिसे नए जमाने के लोग फिक्सिंग कहते
जमाने को दिखाने के लिए दोस्त आपस में ही
एक दूसरे की मार सहते
और चलते जाते प्रचार के दरिया में बहते
देखो क्या जोरदार आईडिया मेरे दिमाग में आया"

पहले अपना गला खंखारा और
फंदेबाज की तरफ घूरते हुए बोले महाकवि दीपक बापू
"इस बात की तो हम माफ़ी मांग लेते हैं कि
खालीपीली तुम्हारे पास दिमाग न होने का शक किया
लग लगी है तुम्हें भी ज़माने की हवा
करने लगा है वह
जो ऐसा आईडिया दिया
भले ही प्यार और जंग में फिक्सिंग जायज हो
पर यहाँ हिट होने की सोचकर आया ही कौन था
लिखने निकले थे अपनी बात अपने ढंग से
कभी चिंत्तन तो कभी हास्य के रंग से
जब बोलता ज़माना भी लगता मौन था
जानते हैं आजकल नूराकुश्ती का चला पडा है खेल
हम नहीं करेंगे चाहे कहलायें फेल
रोना और हंसना
इल्जाम और तारीफ़
प्यार और दुत्कार
सभी फिक्स खेल की तरह लगते हैं
पहले होता था नाटकों और फिल्मों में अभिनय
अब तो सभी अभिनेता हो गये
फिर भी लोग उन पर यकीन करते हैं
अपने जज़्बात उनके साथ जोड़कर चलते हैं
मगर कोई खेल दूर तक नहीं चलता
जानते हैं कई लोग, उनका दिल अब नहीं मचलता
हमारे बूते का नहीं है यह सब
पता नहीं पोल खुल जाए कब
अभी तो लेखकों की जमात में
चुपचाप बैठे खेल देख तो रहे हैं
कहीं हिट हो गए तो पकडे भी जायेंगे
फिर टेंशन में कहाँ लिख पायेंगे
उठाकर बाहर कर दिए जायेंगे
आज हिट तो कल दूसरा पंगा कहाँ ले पायेंगे
पंगेबाज के लिए जरूरी है रोज पंगे लेना
भला हम कहाँ कर पायेंगे
झूटी तारीफों के साथ
इल्जामों में भी फिक्सिंग का हो गया है फैशन
फिक्सिंग के साथ मजा है उनके लिए
जिनका ख्याल अपने से आगे नहीं जाता
ज़माने की सोचने वालों को यह नहीं भाता
यह पंगेबाजी जिनका खेल हैं वही खेलें
हमें तो दर्शकों में ही हमेशा मज़ा आया

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Friday, October 31, 2008

दीवाली के बम का नामकरण-व्यंग्य कविता

पटाखा कंपनी का मालिक
पहुंचा अपने गुरु के पास और बोला
"महाराज, मैंने दिवाली पर
बच्चों के लिए बनाया है
एक नए किस्म का बम
उसका कोई जोरदार नाम बताएं
आपकी श्रीमुख से नामकरण
मुझे हमेशा ही फलता है
कृपा करें ताकि मेरे पटाखे खूब कमायें"

सुनकर मुस्कराए गुरूजी और बोले
"कैसी बात करता है
फुलझडी का नामकरण पूछा होता तो ठीक था
क्या नकली बम का नाम पूछते हो
कैसी पहेली बूझते हो
इतने सारे असली बम फूट जाते हैं
कभी उनकी कंपनी के नाम
भला कभी सुन पाते हैं
लोग ही रख देते हैं
भाषा,जाति,और धर्म के आधार पर उनके नाम
परमाणु बन भी अब अपनी असली नाम से नहीं
बल्कि बनाने वाले दिखाते हैं अपना गौरव
इसलिए धर्म के नाम पर पहचाना जाता है
जिसके पास है उसकी कौम का नाम पाता है
यह अलग बात है
जब असली बम फटता है
मरते हैं बेकसूर लोग
तब जिसकी कौम का नाम आये वह शर्माए
उसका सीना फूलता हैं जिसका न आये
आदमी जी रहा है अपने कौम के भ्रम में
तुम्हारा नकली बन भी यही करेगा
जो जलाएगा उसकी कौम का बनेगा
अपनी जुबान को व्यर्थ नहीं कर सकते
लोग रख देते हैं खुद ही अपने हिसाब से उसका
हम भला क्यों तुम्हें बताएं"

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Wednesday, October 29, 2008

आग को आंखें नहीं होती-व्यंग्य कविता

अपने घर की रौशनी जमाने को
दिखाने के लिये
दूसरों के बुझा देते हैं वह चिराग
नहीं जानते वह
मददगार होते
जब तक प्यार से इस्तेमाल करो
भड़क उठे तो किसी के दोस्त नहीं होते

पानी, हवा और आग
अंधेरा कर दूसरे के घरों में
वह मुस्कराते हैं
अहंकार दिखाते हैं
पर नहीं जानते
जब तक समय साथ है
आदमी बलवान लगता है
पर जब लगता है पलटने तो
हवायें गर्म हो जाती र्हैं
पानी सामने ही हवा हो जाता है
तब मुश्किलों में पल पल होते
.................................
जब लगाते हो
कहीं तुम नफरत की आग
तब अपनी खैर पर भी यकीन नहीं करना
उस आग को आंखें नहीं होती
फैलती है जब चारों तरफ
ले सकती हैं तुम्हारे घर को भी चपेट में
जब बहेगा उसके अंगारों का झरना

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Monday, October 27, 2008

दीपावली पर आश्रम रेटिंग में ऊंचा स्थान पायेगा-हास्य कविता

चेला पहुंचा गुरु के पास और बोला
‘गुरु जी इस बार भी क्या
दीपावली पर अपने आश्रम पर
मेला लग पायेगा
मंदी बहुत है और हमारे अनेक भक्त परेशान है
लोग तो बहुत आयेंगे
पर कोई मालदार आसामी कहां आयेगा
होली पर तो आमंत्रण पत्र भेजकर
आपके दर्शन करने पर
स्वर्ग की प्राप्ति होने का किया था दावा
अब क्या किया जायेगा‘

सुनकर बोले गुरुजी
‘पिछले कार्ड में ही होली शब्द की जगह
दीपावली का आमंत्रण पत्र छपवा लो
भेज दो अलग से एक दक्षिण की सूची
जिसमें मांगो पिटे हुए शेयरों का चढ़ावा
उनके करने पर
स्वर्ग में भी विशिष्ट कक्ष मिलने का कर दिखावा
पहले पता करना कि
हमारे भक्तों में कौन तंग हैं
किसके साथ मंदी का संग है
फिर उनके ही शेयरोें की मांग करना
या फिर हमारे हवाले से
अखबारों में कर देना उनके उनके
शेयरों के भाव बढ़ने की भविष्यवाणी
जिससे बढ़ जाये उनके दाम की कहानी
खुश होकर बाजार के पिटे हुए मोहरे भी आयेंगे
भले ही हो मंदी वह चढ़ावा लायेंगे
बाद में जो बाजार का होगा सो होगा
दीपावली पर अपना आश्रम रेटिंग में
तो ऊंचा स्थान पायेगा

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1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
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Saturday, October 25, 2008

कुछ होती कहानी तो कुछ अफ़साना बन जाता है-हिन्दी शायरी

अपने ख्यालों की दुनिया
कुछ लोग यूं बसा लेते हैं
कि आँखों से देखते हैं जो सामने
उसे गौर से देखने की बजाय अपने
नजरिये जैसा ही समझकर
उस पर अपने ख्याल बना लेते हैं
अक्सर धोखा होता है
ऐसे ही उनके साथ
इसका अहसास होता है तब
जब गर्दन अपनी कहीं फंसा लेते हैं
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आग से आग नहीं बुझती
पर लोहे से लोहा तो कट ही जाता है
कांटे से काँटा निकलता है
जहर से जहर ही कटता है
पर नफरत से नफ़रत नहीं कटती
प्यार से प्यार बढ़ता है
समय और हालतों से उसूल बदल जाते हैं
ओ किताब पढ़कर जमाने को
समझाने वालों
लिखा हुआ है किताब में
हमेशा सच नहीं होता
कुछ होती है कहानी तो
कुछ अफ़साना बन जाता है

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Monday, October 20, 2008

आम आदमी को ख़ास जमात में बैठाकर नहीं चमकाएंगे-आलेख

बहुत मुश्किल हो गया। अंतर्जाल पर ब्लाग पर ऐसी कठिनाई आयेगी यह कभी नहीं सोचा था। मैं कंप्यूटर पर बैठते ही अपने ब्लाग/पत्रिकाओं की दुर्दशा का अध्ययन कर लिखने का विचार करता हूं। सब ठीक ठाक होता है अगर सही राह पर चलें पर अगर कहीं यह विचार आता है कि किसी का ब्लाग पढ़ो तो पता लगता है कि जिस विषय पर सोचा था उसकी जगह कोई दूसरा आ जाता है। हालांकि अगर किसी की कविता पढ़ो तो कोई बात नहीं क्योंकि उस पर हम भी अपनी कविता लिखकर टिप्पणी कर दोहरा लाभ उठा लेते हैं। एक तो टिप्पणी लिख ली और अपना पाठ भी लिख लिया। मगर कोई आलेख हुआ तो?

एक के बाद एक विचार आते जाते हैं और अगर आलेख जोरदार हुआ तो विचार इतने आ जाते हैं कि पहले सोचा गया विषय हल्का लगने लगता है। ऐसा न हो अगर टिप्पणी लिखने का विचार नहीं आये। होता यह है कि जब किसी आलेख या कविता को पढ़ता हूं तो एक आम पाठक होता हूं पर टिप्पणी लिखने का विचार उसे वहां से भगा देता है। यानि या तो कोई ब्लाग न पढ़ूं या टिप्पणी लिखने का विचार ही छोड़ दूं। दोनों ही काम मुश्किल है।

मगर ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि कोई आलेख पूर्व में सोचे गये विषय को ध्वस्त कर गया। यह उस पर टिप्पणी लिखने के विचार से ही हुआ।

पहले सोचा था कि आज बैंक हड़ताल पर लिखूंगा। बैंक कर्मचारी अक्सर हड़ताल कर देते हैं। भारत मे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बहुत महत्व रखते हैं। जब इन सार्वजनिक बैंकों का पूरे कारोबार पर एकाधिकार था तब उनकी हड़ताल से देश की जनता बहुत परेशान होती थी। यही कारण था कि सरकारें उनकी मांगे मान लेती थी। अब तो निजी क्षेत्रों में बैंक आ गये हैं इसलिये इनका एकाधिकार नहीं रहा पर सरकारी सरंक्षण के कारण आज भी उनकी विश्वसनीयता है और आज भी छोटे बचतकर्ता इनके सहारे हैं और बाजार में उनका महत्व आज भी यथावत है। ऐसे में बैंक कर्मचारी अपनी हड़ताल से देश की आर्थिक चाल को अस्त व्यस्त कर देते हैं। मगर अब उनको अब कई ऐसी बातें समझनी होंगी जो उनको कोई कहता नहीं है।
वह अपनी वेतन वृद्धि तथा अन्य मांगों के लिये आंदोलन करें पर हड़ताल जैसे हथियार से दूर ही रहें तो शायद देश के लिये अच्छा हो। अभी हाल ही में बैंक कर्मचारियों ने हड़ताल की थी तो उसमें उनकी एक मांग ‘कृपा नियुक्ति’ ( किसी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति से पूर्व मृत्यु हो जाने पर उसके आश्रित को नौकरी देने की सुविधा) भी शामिल थी। आखिर यह नौबत क्यों आयी? इससे पहले ऐसी मांग क्यों नहीं रखी गयी थी।

इसका कारण यह था कि तब बैंकों में नियमित भर्तियां हो रहीं थीं और कर्मचारियों को भरोसा था कि उनके बच्चे यहीं नहीं तो वहां लग जायेंगे। अब ऐसा होना बंद हो गया क्योंकि देश में धीरे धीरे निजीकरण बढ़ रहा है और अनेक निजी बैंक उनके ग्राहक छीनते जा रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ग्राहक कर्मचारियों के रूखे और असहयोगी व्यवहार के कारण ही इन निजी बैंकों की तरफ आकर्षित हुआ है। इस पर ऐसी हड़तालें उनको और अधिक निजी बैॅकों की तरफ जाने को प्रेरित करेंगी। शायद कुछ बैंक कर्मचारी इस आलेख को पढ़कर नाराज हो जायें पर सच्चाई को जानकर अगर वह आत्म मंथन करें तो वह न स्वयं अपनी आने वाली पीढि़यों बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दे सकते हैं। उनको अपने आंदोलन के लिये जापानी तरीका इस्तेमाल करना चाहिये जिसमें कर्मचारी अधिक काम करने लगते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को यह बात समझ लेना चाहिये कि उनके प्रति जो आम आदमी का रुझान है वह सरकारी संरक्षण से है न कि उनके कामकाज के कारण। लोग उनके व्यवहार से अत्यंत नाराज हैं। जरा वह इन शिकायतों पर गौर फरमायें
1.ए.टी.एम. से नकली नोट निकल रहे हैं।
2.ए.टी.एम. से ऐसे कटे फटे नोट निकल रहे हैं जिन्हें वह कभी स्वयं ग्राहक से नहीं लेते।
3.अपने यहां आने वाले अपढ़ बचतकर्ताओं पर कभी तरस नहीं खाते और उनको फार्म आदि भरने पर मदद नहीं करते न ही पूछने पर कोई सार्थक जानकारी देते हैं।
और भी ढेर सारी शिकायतें हैं जिससे लगता है कि उनकी कार्यक्षमता संदिग्ध है। बैंक कर्मचारी कहेंगे कि यह तो सभी सरकारी विभागों में हैं पर यह कर्मचारी अन्य विभागों से अपने ‘अधिक श्रेष्ठ और प्रमाणिक’ होने को दावा भी करते हैं और समाज में सम्मान पाते है। एक बार दूसरी भी है कि ऐसा अनेक उदाहरण है कि एक ही दिन भर्ती हुए अन्य विभाग के कर्मचारी और बैंक में भर्ती हुए कर्मचारी के बीच समान पद पर डेढ़ से ढाई गुने तक वेतन में अंतर है। अभी छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बावजूद भी इन बैंक कर्मचारियों को वेतन उनसे अधिक रहने वाला है। दूसरे विभागों के कर्मचारी पदोन्नति कभी छोड़ने के लिये तैयार नहीं होते जबकि बैंक कर्मचारी अपने शहर में बने रहने के लिये उसे लेने की भी नहीं सोचते-अपवाद स्वरूप कुछ लोग लेते हैं। इसका कारण यह है कि व्यवसायिक जगत से संबंध होने के नाते वह अपने अलग से भी व्यवसाय कर सकते हैं।

पहले तो कोई बात नहीं थी पर अब निजीकरण के कारण बैंक कर्मचारियों को इस पर विचार करना होगा कि कहीं उनके शीर्षस्थ लोग निजी बैंकों की तरफ लोगों को और अधिक आकर्षित करने के लिये जाने और अनजाने रूप से हड़ताल का नारा तो नहीं दे रहे। यह आवश्यक नहीं हैं कि वह षड़यंत्र रच रहे हों पर एक बात तय है कि आम आदमी की सहानुभूति उनके साथ नहीं है और उनकी हड़ताल गुस्सा भर देगी और वह आर्थिक मंदी में भविष्य में डांवाडोल होने की संभावना वाले निजी बैंकों की तरफ जा सकता है।

इस आर्थिक मंदी में भारत की आर्थिक सुरक्षा के प्रति लोग आश्वस्त हैं तो केवल इसलिये कि सार्वजनिक बैंकों को सरकारी संरक्षण मिला हुआ है। अमेरिका में निजी बैंक डांवाडोल हो रहे हैं ऐसे में भारत के सार्वजनिक बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों को सोचना होगा। वह इसका जिम्मा आम आदमी पर न डालें वह उनसे नाराज होकर निजी बैंको पर अपना भविष्य का दांव लगा सकता है उसकी हानि होगी वह निपट लेगा पर बैंक कर्मचारी तो समझदार हैं इसलिये उनको अब उनको ऐसी हड़तालों से दूर रहना होगा। इसकी बजाय वह आम आदमी से और अधिक सौहार्द पूर्ण व्यवहार करने लगें। आम आदमी से मधुर भाषा में बात करने के साथ कम और अपढ़ बचतकर्ताओं को फार्म भरने के अलावा उनको अधिक बचत वाली योजनाओं में पैसा लगाने के लिये प्रेरित करें। एसा व्यवहार करें कि निजी क्षेत्र में उनको मिलने की आशा भी न रहे। बैंक के प्रति जो विश्वास है वह तो सरकारी संरक्षण के कारण बना ही हुआ है। बैंक कर्मचारी अमेरिका और जापान की बातें करते हैं अब उनको अपने आंदोलन के लिये यही तरीका अपनाना चाहिये-अधिक से अधिक काम कर।

जहां तक काम के बोझ का प्रश्न है तो अधिकतर बैंक कर्मचारी अखबार पढ़ने के साथ टीवी चैनल भी देखते होंगे जिसमें ऐसे समाचार आते हैं कि कमोबेश सभी विभागों से ऐसी शिकायतें आती हैं। उन पर चर्चा एक अलग विषय है पर ए.टी.एम. की वजह से सार्वजनिक बैंकों के कर्मचारियों को राहत जितनी मिली है उसे भी सभी जानते हैं। लोग छोटी मोटी धनराशि वहीं से निकालना पसंद करते हैं। आशय यही है कि आम आदमी के प्रति उनको अपने अंदर एक खास आदमी होने का भाव लाना होगा क्योंकि वह और उनके बैंक उन्हीं के भरोसे रहे हैं।

यह सब एक तरीके से लिखना था पर विचारों का क्रम ध्वस्त हो गया। हुआ यूं कि एक प्रतिष्ठित ब्लाग लेखिका ने अपने ब्लाग पर एक आलेख प्रकाशित किया था। वह अंतर्जाल पर हिंदी को स्थापित करने के लिये प्रतिबद्ध दिखती हैं और पिछले चार पांच दिन से कुछ नहीं लिखा तो वह अपनी टिप्पणी लिख गयी थीं। संभवतः वह याद दिला रहीं थीं कि मुझे लिखते रहना चाहिये। उनके प्रकाशित आलेख में महान लेखक और मेरठ लेखन की चर्चा थी। उसमेें लिखा गया था कि अगर मेरठ के प्रकाशकों ने चालू लेखन कर पैसा कमाया पर अगर वह सार्थक लेखन को प्रकाशित करते तो इससे भी अधिक कमाते। उसमें यह भी लिखा था कि अगर यह लोग चाहते तो देश में महान उपन्यासकार उनको तीन महीने में जोरदार उपन्यास लिख कर देते।

बात सही है पर शायद देश के मूर्धन्य लेखकों ने यह बात कभी नहीं लिखी कि यहां के धनपति कमाना चाहते हैं पर किसी दूसरे को प्रतिष्ठित कर नहीं बल्कि उसे अपना गुलाम बनाकर। वह कम कमायेंगे पर किसी आम आदमी को खास लोगों की जमात में बैठने के लिये नहीं चमकायेंगे। ऐसा नहीं है कि अंतर्जाल पर इसके प्रयास नहीं होंगे पर ब्लाग स्पाट और वर्ड प्रेस के यह ब्लाग शायद ऐसा नहीं करने देंगे। उसमें एक बात सच लिखी थी कि देश के लेखक अभी नयी सोच के साथ आगे नहीं बढ़ रहे। सच मानिये तो मैं एक बात लिखता हूं कि आने वाला समय अंतर्जाल पर ब्लाग (बेवसाईटों का नहीं) का है। हिंदी की प्रगति यहां धीमी है पर याद रखिये जिसकी गति धीमी होती है उसका जीवन अधिक होता है। अब देखिये शेयर बाजार और म्यूचल फंडों की खरीद फरोख्त ने तेजी पकड़ी और जब रुकी तो गर्त में आकर गिरी। अपने लेखक होने के जितने मजे यहां ले सकता हूं ले रहा हूं। फ्लाप है और एक भी पैसा नहीं कमा रहा पर एक दृष्टा की तरह सब देख रहा हूं।

हां एक बात याद आयी। उस आलेख में लिखा था कि अनेक लेखकों और विद्वानों ने अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार किये है और इसकी सबसे अधिक जरूरत है। यह बात स्वीकार करने योग्य हैं। बात हिंदू धर्म की करें। एक बात तय है कि हमारे धर्म में अनेक प्रकार के अंधविश्वास हैं पर उन पर प्रहार करने के लिये जरूरी है कि पहले यह समझना आवश्यक है कि उनका अध्यात्मिक ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म तो पृथक विषय हैं। जिन लोगों ने अंधविश्वासों पर प्रहार किये तो कोई नई बात नहीं की क्योंकि यह संत शिरोमणि कबीरदास जी और कविवर रहीम पहले ही कर चुके हैं पर वह दोनों भक्ति के चरम शिखर पर रहे यही कारण है कि आज भी आज लोगों के लोकप्रिय हैं। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से शिक्षित विद्वान और लेखक अंधविश्वासों पर जमकर प्रहार करते हैं पर उनसे परे हटाने की ताकत जिस अध्यात्मिक ज्ञान में उसको वह धारण नहीं कर सके यही कारण है कि वह प्रभावी नहीं रहे। यह अध्यात्मिक ज्ञान निष्काम भक्ति से प्राप्त होता है या योग साधना के साथ ही श्रीगीता के अध्ययन से। हां, उस तत्व ज्ञान को जाने बिना कोई किसी को अपने ज्ञान से प्रभावित नहीं कर सकता।
वह तत्व ज्ञान क्या है? इस पर फिर कभी। वैसे इस विषय पर लिखता रहता हूं।

बहरहाल आलेख बहुत अच्छा लगा। यही कारण है कि किसी एक दिशा में स्थिर नहीं रह सका। अगर कोई सोच रहा हो कि आखिर मैंने टिप्पणी लिखने की सोची ही क्यों? कम से कम तसल्ली से पढ़कर फिर कभी लिखता। क्या करता? कई बार ऐसा होता है कि दूसरे का अच्छा लिखा जब बहुत प्रभावित करता है तो अंतर्मन का लेखक कुछ लिखने के लालायित हो उठता है। वह सही दिशा में भी लिखता है पर अगर पहले से ही कुछ सोचे बैठा हो तो फिर ऐसा भी होता है। हां अगर मैंने अपना लिखने के बाद ही वह आलेख पढ़ा होता तो शायद यह हालत नहीं होती और टिप्पणी लिखने के बाद विषय अपने दिमाग में संजो कर रख लेता।
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Sunday, October 19, 2008

दोबारा जिंदा नहीं हो सकती ईमानदारी-हास्य क्षणिकाएं


नकली घी,खोवा और दूध से
हो रहा है बाज़ार गर्म
दीपावली का जश्न मनाने से पहले
अमृत के नाम पर विष पी जाने के
खौफ से छिद्र हो रहा है मर्म
बिना मिठाई के दीपावली क्या मजा क्या
पर पेट में जो भर दे विकार
ऐसे पेडे भी खाकर बीमार पड़ना क्या
कि जश्न मनाकर जोशीले तेवर
डाक्टर के सख्त सुई से पड़ जाएँ नर्म
--------------------------------

ईमानदारी की कसम खाकर
वह बेचते हैं मिलावटी सामान
क्योंकि अब तो वह मर मिट गयी है इस दुनिया से
चाहे जितनी क़समें खा लो उसके नाम की
दोबारा जिंदा नहीं हो सकती ईमानदारी
कितनी भी बेईमानी करने पर
पकड़ने के लिए किसी आदमी के कान

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Monday, October 13, 2008

थ्योरी खूब सुनी सेवा की,देखा नहीं कभी प्रेक्टिकल-हास्य कविता

दादा-दादी से अलग रहने वाले
बच्चे को उसके पिता सिखा रहे थे
'बेटा , हमारे बुजुर्गों के कहे अनुसार
सदैव अपने से बडे लोगों का
तुम सम्मान करना
उनका कहना है कि हर
बच्चे को चाहिये अपने
मां-बाप की सेवा करना
उसी का होता है जीवन सफ़ल'
बच्चे ने उत्सुकता वश पूछा
'हम दादा-दादी के साथ क्यों नहीं रह्ते
क्या आप उनकी सेवा करते हो
क्या आपका जीवन भी है सफ़ल'
उसके पिता हो गये खामोश
उतर गयी शकल

बडा होकर वह ऐक गुरु के पास गया
शरण के साथ मांगा भक्ति के लिये ज्ञान
मांगी वह शक्ति जिससे
मिटे मन का मैल और अभिमान
गुरुजी ने कहा
'सदा अपने गुरु की आज्ञा मानो
और जो कहैं उसे ब्रह्मज्ञान ही जानो
सदा अपने माता-पिता के सेवा करो
तभी तुम्हारा जीवन होगा सफ़ल'
उसने पूछा
'गुरुजी आपके गुरु और माता-पिता
कहां है और क्या आप भी उनकी सेवा करते हैं'
गुरुजी हो गये बहुत नाराज्
कहीं उनके मन पर भी गिरी थी
उसके शब्दों की गाज्
गुससे में बोले-
ऐसे सवाल करोगे तो
कभी भी तुम्हें नहीं आयेगी अकल'

वह बन गया बहुत बडा डाक्टर
करने लगा गरीबों की भी मुफ़्त सेवा
समाज सेवा में कमाया उसने नाम
गरीबों की भीड जुटती थी उसके
घर में सुबह और शाम
कीचड में खिल गया जैसे कमल

ऐक गरीब बेटे की मां की उसने
अपने घर पर रखकर सेवा की
उसने दी उसे दुआ और कहा
'बेटे जरूर तुम अपने मां-बाप की भी
सेवा बहुत करते होगे
तभी है तुम्हारा जीवन है सफ़ल
डाक्टर ने फ़ीकी हंसी हंसते हुए कहा-
'बस यही नहीं समझा अपने जीवन में
नर्सरी से शिक्षा प्राप्त करना शुरू की
ले आया डिग्री साइंस आफ़ मेडिकल्
मां-बाप की सेवा की थ्योरी खूब सुनीं
पर कभी न देखा उसका प्रेक्टिकल
------- --------------------------------

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Friday, October 10, 2008

आदमी और जमात-हिंदी शायरी

परिवार के बिखरने से भयाक्रांत
इंसान करता है जंग हमेशा
अपनी हालातों से
पैसे से खरीद लेता है कोई
घर की सारी खुशियां
जहां नहीं है
वहां काम चलाता है बातों से

सभी का है अलग अलग दर्द
पर जमाने में भला करने वाले सौदागर
अकेले इंसान की मुश्किल
दूर करने से कतराते
संग हो जाते भीड़ बनी जमातों से

इंसान बोलता है पर
जमातें जब भीड़ बन जाती है
उसमें वह भेड़ बन जाता है
उस भीड़ में सुनना जरूरी है
पर बोलना मना है
रौशनी पर सोचने की है इजाजत
पर आंखों को देखना हैं वहां
जहां अंधेरा घना है
अक्ल का इस्तेमाल करने पर है बंदिश
चलना है उस पर ख्वाब पर
जो केवल सोचने के लिये बना है

इसलिये बंद कर दिया है
इंसानों अपनी जमातों के लिए बाहर आना
इतने धोखे खाये हैं कि
रौशनी का कितना भी भरोसा दिलाओ
उसे यकीन नहीं आता
पंसद है रहना उसे अपनी अंधियारी रातों से

......................................
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Monday, October 6, 2008

अल्फाज़ का भाव भी बाज़ार में नीचे ऊपर चलता है-हिन्दी शायरी

उनकी आँखों में प्यार का दरिया
हमेशा बहता लगता है
क्योंकि बाज़ार के खिलाडी हैं
जहां इन्हीं अदाओं पर सौदागर का
काम चलता है

बाज़ार में दोस्ती होती नहीं
की जाती हैं फायदे के लिए
चले तो कई बरसों तक
प्यार और दोस्ती का सफ़र
यूं ख़त्म हो जाता है
जहां टूटा फायदे और मतलब का क्रम
वही सामने आ जाता है रिश्तों का भ्रम
जज्बातों का व्यापार ऐसे ही
सदियों से चलता है

चेहरे पर नाकाब सभी पहने
जरूरी नहीं हैं
अब तो जुबान से भी यह काम चलता है
अपने दिल की बात किसी को कहने से
कोई फायदा नहीं
बेच सकता है उसे सुनने वाला और कहीं
दोस्ती के व्यापारियों का क्या
सस्ते में प्यार बेच दें
अपने दिल की घाव क्या दिखाएँ उनको
दर्द का भाव तो बाज़ार में और महँगा चलता है

क्या अपनी जुबान से कहें
समय का इन्तजार ही है
आने से पहले सब खामोशी से सहें
अल्फाज़ हमारे अभी सस्ते ही सही
पर यह बाज़ार का खेल है
जिसमें भाव कभी नीचे तो कभी ऊपर चलता है
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Wednesday, October 1, 2008

घायल और हमदर्द-लघुकथा

वह हादसे में घायल होकर सड़क पर गिर पड़ा ह था। उसके चारों और लोग आकर खड़े हो गये। वह चिल्लाया-‘मेरी मदद करो। मुझे इलाज के लिये कहीं ले चलो।’
लोग उसकी आवाज सुन रहे थे पर बुतों की तरह खड़े थे। उनमें चार अक्लमंद भी थे। एक ने कहा-‘पहले तो तुम अपना नाम बताओ ताकि धर्म,जाति और भाषा से तुम्हारी पहचान हो जाये।

वह बोला-‘मुझे इस समय कुछ याद आ नहीं आ रहा है। मैं तो केवल एक घायल व्यक्ति हूं और अपने होश खोता जा रहा हूं। मुझे मदद की जरूरत है।
एक अक्लमंद बोला-‘नहीं! तुम्हारो साथ जो हादसा हुआ है वह केवल तुम्हारा मामला नहीं है। यह एक राष्ट्रीय मसला है और इस पर बहस तभी हो पायेगी जब तुम्हारी पहचान होगी। तुम्हारा संकट अकेले तुम्हारा नहीं बल्कि तुम्हारे धर्म, जाति और भाषा का संकट भी है और तुम्हें मदद का मतलब है कि तुम्हारे समाज की मदद करना। इसके लिये तुम्हारी पहचान होना जरूरी है।’

यह सुनते हुए उस घायल व्यक्ति की आंखें बंद हो गयीं। कुछ लोगों ने उसकी तरफ मदद के लिये हाथ बढ़ाने का प्रयास किया तो उनमें एक अक्लमंद ने कहा-‘नहीं, जब तक यह अपना नाम नहीं बताता तब तक इसकी मदद करो। हम मदद करें पर यह तो पता लगे कि किस धर्म,जाति और भाषा की मदद कर रहे हैं। ऐसी मदद से क्या फायदा जो किसी व्यक्ति की होती लगे पर उसके समाज की नहीं।

उसी भीड़ को चीरता हुए एक व्यक्ति आगे आया और उस घायल के पास गया और बोला-‘चलो घायल आदमी! मैं तुम्हें अपनी गाड़ी में बिठाकर अस्पताल लिये चलता हूं।’
उस घायल ने आंखें बंद किये हुए ही उस आदमी के कंधे पर हाथ रखा और उठ खड़ा हुआ। अक्लमंद ने कहा-‘तुम इस घायल की मदद क्यों कर रहे हो? तुम कौन हो? क्या इसे जानते हो?’

उस आदमी ने कहा-‘मैं हमदर्द हूं। कभी मैं भी इसी तरह घायल हुआ था तब सारे अक्लमंद मूंह फेर कर चले गये थे पर तब कोई हमदर्द आया था जो कहीं इसी तरह घायल हुआ था। घायल की भाषा पीड़ा है और जाति उसकी मजबूरी। उसका धर्म सिर्फ कराहना है। इसका इलाज कराना मुझ जैसे हमदर्द के लिये पूजा की तरह है। अब हम दोनों की पहचान मत पूछना। घायल और हमदर्द का समाज एक ही होता है। आज जो घायल है वह कभी किसी का हमदर्द बनेगा यह तय है क्योंकि जिसने पीड़ा भोगी है वही हमदर्द बनता है। भलाई और मदद की कोई जाति नहीं होती जब कोई करने लगे तो समझो वह सौदागर है।’
ऐसा कहकर उसको चला गया।
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Wednesday, September 24, 2008

आग खत्म तो कहानी खत्म-लघुकथा

भरी दोपहर में वह इंसान सड़क पर जा रहा था। उसने देखा दूसरा इंसान बिजली के खंबे के नीचे अपने कुछ कागज उल्टे पुल्टे कर रहा था। अचानक वह बड़बड़ा उठा-‘यह बिजली वाले एकदम नकारा हैं। देखों बल्ब भी नहीं जलाकर रखा। खैर, कोई बात नहीं मैं अपने कागज ऐसे ही पढ़कर देखता हूं ताकि वक्त पड़ने पर इन्हें देखने में कोई समस्या न हो।’

पहला इंसान रुक गया और उसने दूसरे इंसान से पूछा-‘क्या बात है भई? भरी दोपहरियो में बल्ब न जलाने पर इन बिजली वालों को क्यों कोस रहे हो। अपने कागज तो तुम ऐसे ही पढ़ सकते हो। अभी तो सूरज की तेज रोशनी पड़ रही है जब रात हो जोयगी तब लाईट जल जायेगी।’

उस दूसरे इंसान ने कहा-‘ओए, तू भला कहां से आ टपका। तुझे पता नहीं मैं मोहब्बत और अमन का फरिश्ता हूं और जिनकों कागज कह रहा है इसमें मोहब्बत और अमन की कहानियां हैं। यह तेरे समझ के परे है क्योंकि तेरे साथ कभी को हादसा नहीं हुआ न! यह पीडि़त लोगों को सुनाने के लिये है इससे उनको राहत मिलती है। तू फूट यहां से।

फरिश्ते की बात सुनकर वहा इंसान आगे बढ़ने को हुआ तो अचानक एक लड़का चिल्लाता हुआ उसके पीछे आया और बोला-चाचा, जल्दी वापस चलो अपने चाय के ठेले में आग लग गयी है।’

वह इंसान भागने को हुआ तो पीछे से फरिश्ता चिल्लाया-‘रुक तेरे साथ हादसा हुआ है। अब सुन मेरे मोहब्बत और अमन का पैगाम। यह कहानी है और यह कविता!’

वह इंसान चिल्लाया-‘भाड़ में जाये तुम्हारी कविता और कहानी। मैं जा रहा हूं अपना ठेला बचाने।’

वह भागा तो फरिश्ता भी उसके पीछे ‘सुनो सुनो’ कहता हुआ भागा।

वह इंसान ठेले के पास पहुंचा तो उसने देखा कि कुछ लोग पास की टंकी से पानी लेकर आग बुझाने का प्रयास कर रहे हैं। वह स्वयं भी इसमें जुट गया। वह बाल्टी भरकर ठेले पर डालता तो इधर फरिश्ता कहता-‘सुन अगर यह आग गैस से लगी है तो कोई बात नहीं है। गैस वैसे तो हमेशा हमारे बहुत काम आती है पर अगर एक बार धोखा हो गया तो उस पर गुस्सा मत होना। इस संबंध में एक विद्वान का कहना है कि...............’’
वह इंसान चिल्लाया-‘तुम दूर हटो। मुझे तुम्हारी इस कहानी से कोई मतलब नहीं है।’

वह दूसरी बाल्टी भरकर लाया तो वह फरिश्ता बोला-‘अगर यह किसी माचिस की दियासलाई से लगी है तो कोई बात नहीं वह अगर सिगरेट जलाने के काम आती है तो सिगड़ी को प्रज्जवलित करने के काम भी आती है। यह कविता.....................’’

वह आदमी चिल्लाया-’दूर हटो। मुझे अपनी रोजी रोटी बचानी है।’

मगर फरिश्ता कुछ न कुछ सुनाता रहा। आखिर उस इंसान ने ठेले की आग बुझा ली। वह उसके ठेले के नीचे रखे कागजों में लगी थी और अभी ऊपर नहीं पहुंची थी। उसका कामकाज चल सकता था। आग बुझाकर उसने उस फरिश्ते से कहा-‘अब सुनाओं अपनी कहानियां और कवितायें। मेरे दिल को ठंडक हो गयी। कोई खास नुक्सान नहीं हुआ।’
फरिश्ते ने अपने कागज अपने बस्तें में डाल दिये और चलने लगा। उस इंसान ने कहा-‘जब मै सुनना नहीं चाहता तब सुनाते हो और जब सुनना चाहता हुं तो मूंह फेरे जाते हो।’

उस फरिश्ते ने कहा-‘आग खत्म तो मेरी कहानी खत्म। मेरी कहानी और कवितायें अमन और मोहब्बत की हैं जो केवल वारदात के बाद तब तक सुनायी जाती हैं जब तक उसका असर खत्म न हो। अब तुम्हें मेरी कहानी और कविता की जरूरत नहीं है।’
वह इंसान हैरानी से उसे देखने लगा
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Sunday, September 21, 2008

इंसान खेलता है जज्बातों के साथ-हिन्दी शायरी

चेहरे पर हंसी होने का मतलब हमेंशा

दिल का खुश होना नहीं होता

कई लोग खिलखिलाते हैं

दूसरों को हँसाने के लिए

ताकि उनके पेट की भूख मिट जाए

आंसू बहाना भी हमेंशा रोना नहीं होता

कुछ लोग रोते हैं दूसरे को दहलाने के लिए

ताकि चंद सामान मिल जाए

अपने मन की भूख मिटाने के लिए

इंसान खेलता है जज्बातों के साथ

जो उसके लिए कभी पराया तो कभी अपना होता
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Friday, September 12, 2008

नये और पुराने का चक्कर- हास्य व्यंग्य और कविता

एक नया कवि मंच पर कविता सुनाने के लिये बुलाया गया तो उसने आते ही कहा‘,आज मैं अपनी एक कविता सुनाने जा रहा हूं। यह जोरदार कविता है। सुनिये-
अरे, पुराने घाघ कवियों
रोज रोज मंचों पर क्यों चले आते हो
अपनी पुरानी रचनायें सुनाते हो
सब हो गये बोर तुमसे
अब यहां से रिटायर हो जाओ
ताकि नये लोग आ सकें
पुराने और कबाड़ के माल जैसे लगते हो
तुम यहां से रुखसत हो जाओ’’


लोगों ने बहुत जोर से तालियां बजाईं। वाह वाह की आवाज से पूरा मैदान गूंज उठा। मंच पर बाकी कवि सन्नाटे में बैठे रहे। वह कवि भी माइक से हट गया तो दर्शक चिल्लाये-‘अरे, भई अपनी कविता तो सुनाओ। तब तो इन पुराने कवियों को रुखसत करें।’

नये कवि ने कहा-‘यह कविता नहीं तो और क्या थी? कितनी देर तक तो वाह वाह करते रहे।
एक दर्शक चिल्लाया-‘वाह वाह तो सभी के लिये करते हैं पर तुम्हारे लिये इसलिये की कि तुम अधिक देर तक नयी कवितायें सुनाओगे। यह तो चुटकी बजाकर चले गये। इससे तो यह पुराने भले थे।

नये कवि ने कहा-‘पहले यह सब हट जायें तभी तो सुनाऊंगा। वैसे अभी मैं यह एक ही कविता लिखी है जो सुना दी। फिर आगे लिखकर सुनाऊंगा।’

दर्शकों ने हाय हाय शुरू की दी। कुछ तो उसे मंच पर ही लड़ने दौड़े वह वहां से भाग निकला। तक हालत को संभालने के लिये एक पुराने कवि ने अपनी नयी रचनायें सुनाना शुरू कर दी।

‘नया नया कर सब चले आते
पुराने पर सभी मूंह फेर जाते
जब नया हो जाता फ्लाप
पुराने का ही होता है जाप
पुराने चावल और शराब का
मजा खाने और पीने में कुुछ और न होता
तो शायद हर जगह पुराना
शायर पिट रहा होता
नया चार लाईनों के हिट लूट रहा होता
अपने नयेपन इतराते हैं बहुत लोग
नहीं जानते क्या है मजा और क्या है रोग
अहसास ही है बस नये और पुराने का
नाम ही खाली जमाने का
शोर मचाकर कविता लिखी जा सकती
तो यहां हर कोई कवि होता
दर्द सभी को है पर
हर कोई शब्दों में उसे नहीं पिरोता
आधुनिक जमाने में तीस पर ही
कई बुढ़ापे के रोगों का होते शिकार
जवान दिखते हैं वह जो हैं साठ के पार
नये और पुराने आदमी में भेद करना
अब कठिन हो गया है
पुरानी गाड़ी खरीदते हैं कबाड़ में
और छह महीने चल चुकी कार को
कहते हैं सैकेंड हैंड
बजाते हैं खुशी का बैंड
आदमी के चक्षुओं के सामने ही
हो जाता है अंधेरे का व्यापार


उसकी कविता सुनकर नये कवि के पीछ भागने वाले श्रोता और दर्शक रुक गये और पूरा मैदान वाह वाह से गूंज उठा।
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Wednesday, September 10, 2008

टंकी पर चढ़ने का रिवाज पुराना हो गया-हास्य कविता

टंकी पर चढ़ गया आशिक
यह कहते हुए कि
‘जब तक माशुका शादी के लिये
राजी नहीं होगी
वह नीचे नहीं आयेगा
अधिक देर लगी तो कूद जायेगा’

शोर मच गया चारों तरफ
भीड़ में शामिल माशुका पहले घबड़ायी
और और बोली
‘आ जा नीचे ओ दीवाने
मैंने अपनी शादी का कार्ड भी छपवा लिया है
देख इसे
पर ऐसा तभी होगा, जब तू नीचे आयेगा’

वह दनदनाता नीचे आया
माशुका के हाथ से लिया कार्ड
उसमें दूल्हे की जगह
किसी और का नाम था
आशिक चिल्लाया
‘यह तो धोखा है
मैं चलता हूं फिर ऊपर
अब तो मेरा शव ही नीचे आयेगा‘

वह खड़े लोगों ने उसे पकड़ लिया तो
माशुका ने कहा
‘ऐ आशिक
बहुत हो गया है
इश्क में टंकी पर चढ़कर
वहां से कूदने के नाटक का रिवाज
नहीं चलता आज
चढ़े बहुत हैं ऊपर
पर नीचे कोई नहीं आया
भले ही किसी ने नहीं मनाया
नशा उतर गया तो सभी नीचे आये
कर अब कोई नया ईजाद तरीका
तभी तू अशिकों के इतिहास में
अपना नाम लिखा पायेगा

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Monday, September 1, 2008

फिर भी अंधों में काने राजा की तरह सज जाते-व्यंग्य कविता

किताबों में स्याही से लिखे शब्द

तब तक ज्ञान नहीं हो जाते

जब तक पढ़ नहीं जाते

पढ़े गये शब्द भी तब तक ज्ञान नहीं होते

जब तक उसके अर्थ समझे नहीं जाते

अर्थ समझने का मतलब भी

ज्ञान का आना नहीं

जब तक उन पर अमल नहीं कर पाते

ढेर सारी किताबों पढ़कर भी

कोई ज्ञान के सिंहासन पर नहीं बैठ जाता

भले ही कितना भी इतराता

जब आंखों से पढ़े

और कानों से सुने जाते हैं

अगर उन पर मनन नहीं करता आदमी तो

कुछ शब्द बाहर बह जाते

कुछ अंदर ही कीचड़ की तरह जम जाते

इसलिये लोग आधे अधूरे ज्ञान को ही

पूरा समझ जाते


इसलिये अहंकार की खाई से कभी नहीं निकल पाते

पर फिर भी अंधों में काने राजा की तरह सज जाते

...........................................................................

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Saturday, August 30, 2008

अपनी बची बीमारी के साथ चल दिये-हास्य व्यंग्य

मेरे मित्र ने कहा-‘कल कोई एक निबंध लिख कर लाना। मेरे बेटी वाद विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाली है तो उसे याद कर बोलेगी।’
उसने विषय बता दिया। अगले दिन मैंने उसे एक कागज पकड़ाया तो उसने मुझसे कहा-‘ऐ भाई! मैंने तुम्हें निबंध लिखने के लिये कहा था। यह क्या छटांक भर लिख कर लाये हो। क्या ब्लाग पर छटांक भर लिखते हुए एक किलो का लिखना भूल गये।’

हमने कुछ सुना कुछ नहीं। बात उससे आगे बढ़ी ही नहीं। छटांक भर शब्द पर ही हम अटक गये। क्या जोरदार शब्द था ‘छटांक भर’। अब तो हमने तय किया कि जब भी लिखेंगे छटांक भर ही लिखेंगे। इस शब्द में इतना आकर्षण लगा कि जब भी कोई हमारे ब्लाग से अंतर्जाल पर टकरायेगा यह शब्द पढ़कर जरूर पढ़ने के लिये प्रेरित होगा।

बहरहाल मित्र को दोबारा लिखने का आश्वासन दिया। उसके बाद घर आकर एक पुराना लेख निकाला। वह उसी विषय संबंधित था और उसे सौंप दिया। उसने पूछा कि ‘इतनी जल्दी कैसे लिख लिया’।
‘छटांक भर का काम था, इसमें हमें देर क्या लगती है।’हमने कहा
वह बोला-‘अगर यह छटांक भर का काम है तो कल वाले की तौल क्या होगी? उसका तो बांट भी नहीं मिलेगा।’
मैंने कहा-‘मेरे लिये तो सब छंटाक भर है।’
बस तबसे हमारे दिमाग में छटांक भर शब्द को अपना हथियार बना लिया।
कल एक चाय की दुकान पर गये। वहां चाय वाले से कहा-‘देना भई, छटांक भर चाय पिला देना।’
चाय वाला हमें घूर कर देखने लगा और बोला-‘बाबूजी, यह छटांक भर चाय का क्या मतलब है?’
हमने कहा-‘तुम तो रोज पिलाते हो भूल गये क्या?’
वह बोला-‘बाबूजी, तो आप कट चाय बोलिये ना! छटांक भर से मैं कन्फ्यूज हो गया।’
वह चला गया तो हमने उसे यहां काम करने वाले आदमी से कहा-‘भाई, जरा छटांक भर पानी पिला देना।’
वह भी घूर घूर कर हमें देखने लगा। हमने कहा-‘सुना नहीं। छटांक भर पानी पिला देना।’
वह बोला-‘पर छटांक भर पानी तोल कर कैसे लाऊं। वह तो ग्लास मेंे ही आयेगा।’
हमने कहा-‘तुम्हारा ग्लास ही तो छटांक भर का है। ले आओ उसी में।’
उसी समय हमारा वह मित्र भी आ गया। उसने आते ही चाय वाले को दो कप चाय लाने का आदेश दिया और हमारे सामने बैठ गया।
चाय पीते हुए हमने उससे एक आदमी की चर्चा करते हुए कहा-‘उसका छटांक भर फोन नंबर तो देना।’
वह बोला-मेरे पास नहीं है।’
हमने कहा-‘छटांक भर पता ही दे दो।
वह बोला-‘यह छटांक भर का क्या मतलब। पूरा का पूरा ही ले लो एक किलो का। वैसे मैंने तो मजाक में ही कह दिया था छटांक भर तुम तो उसे पकड़ कर बैठ गये।’
मैंने कहा-‘मैंने तो तुमसे कुछ कहा ही नहीं। छटांक भर बहुत हिट शब्द लगा सो पकड़ लिया। अधिक परेशान न होना। अगर हमारे ब्लाग खोलोगे तो वहां अब यही शब्द नजर आयेंगे।’
मेरा मित्र बोला-‘अजीब आदमी हो। इस छटांक भर की बीमारी को वहां भी ले गये।’
हमने पूछा-‘अब यह बताओ कि यह छटांक भर बीमारी क्या होती है वैसे यह आयी तो वहीं से ही थी।’
वह बोला-‘इस बीमारी का नाम है छटांक भर, पर तुम्हारे लिये एक किलो साबित होने वाली हैं। वैसे सच बताना क्या यह मेरे कहने से यह छटांक भर की बीमारी वहां ले गये हो।’
हमने कहा-नहीं! बल्कि यह बीमारी तो आई वहीं से। तुमने तो केवल उसे बढ़ाने का काम किया है। वहां लोग बोलते हैं कि छटांक भर का पाठ लिखता है।’
चाय पीकर हम दोनो बाहर निकले। थोड़ी दूर चलकर हमने एक बाजार देखा और उससे कहा-‘धूप बहुत है। उस किताब की दुकान पर चलते है और वहां से दिमागी बीमारियों के घरेलू इलाज करने वाली किताब खरीदते है।’
वह बोला-‘हां! यह ठीक है। इससे तुम इस छटांक भर की बीमारी से मुक्ति पा लोगे।’
मैंने कहा-‘पगला गये हो। हम अपने इलाज के लिये ही थोड़े ही खरीद रहे हैं। वह तो हमें अपने ब्लाग पर लिखना है। लोग कह रहे हैं कि छटांक भर कविताओं और व्यंग्यों से क्या होता है। सोच रहे है कि वहां आधी रात के बैठकर एक धारावाहिक लिखेंगे‘डाक्टर कहते हैं’, हो सकता है इससे हिट हो जायें।’
वह बोला-‘तुम अपनी बीमारी का क्या करोगे?
हमने कहा-‘उसकी फिक्र तो तुम जैसे दोस्त करें जिनकी वजह से यह लगी है। बहुत किस्मत से बिना बुलाये बीमारी आयी है वरना लोग तो हमदर्दी पाने के लिये बीमारी का नाटक करते हैं। जहां चार लोग बैठते हैं तो मधुमेह,उच्चरक्तचाप,टीवी और तमाम बीमारियों अपने होने की सूचना देकर वहां एक दूसरे से हमदर्दी जुटाते हैं। कुछ होती है और कुछ बताते हुए अपने आप बढ़ जाती है। उस बीमारी से वह स्वयं ही परेशान होते हैं पर हमारी छटांक भर बीमारी तो दूसरों के लिये परेशानी का सबब बनेगी। हमें तो हिट मिलेंगे।’

मित्र ने कहा-‘तब तो अगर तुम्हें कोई इनाम वगैरह मिले तो मुझे उसका हिस्सा हमें देना। आखिर यह बीमारी हमने दी है।’
हमने कहा-‘यह तुम्हारा भ्रम हैं। जिस तरह बीमारियों की चर्चा से बढ़ती हैं उसी तरह यह भी तुम्हारी चर्चा से बढ़ी है।
उसने पूछा-‘तो किसी ने ब्लाग वाले ने लिखकर यह बीमारी तुम पर लादी है। उसका नाम मुझे बता दो तो उसको धन्यवाद दूंगा। अरे, उसे हमारे दोस्त को हिट होने का मार्ग बता दिया।’

हमने कहा-‘हम तो उसका नाम भूल ही गये। यह छटांक भर शब्द आकर ही ऐसा चिपका कि सब भूल गये। हम बस खुश हैं। आह...आह......वाह क्या आईडिया मिला। अब तो समझो कोई पुरस्कार मिलकर ही रहेगा।’
मित्र ने कहा-‘साफ कहो संभावित पुरस्कार की सारी राशि हड़पने का मन है। इस शब्द का अविष्कारकर्ता मुझे मानते नहीं और जिसने किया है उसका बताते नहीं। यह भारी चाालकी दोस्तों के साथ नहीं चल सकती।’
हमने कहा-‘भारी भरकम कहां यार! अब तो बस छटांक भर कहो। तुम क्या नहीं चाहते हम ब्लाग पर हिट पायें।’
मित्र ने कहा-‘महाराज, मगर कोई पुरस्कार आ जाये तो छटांक भर हमारे साथ भी बांट लेना। अरे और कुछ नहीं तो छटांक भर मिठाई ही खिला देना।’
हमने कहा-‘हां, अगर कोई पुरस्कार आ गया तो शेयर कर दूंगा ‘छटांक भर’
हमारा मित्र बोला-‘यार, मुझे याद रखना चाहिए कि तुम अब ब्लागर हो। इसलिये ऐसे शब्द नहीं बोलूंगा जिसे चुराकर तुम हिट लो। ऐसे शब्द तुमसे बोलने से क्या फायदा जो छटांक भर भी फायदा न हो।’
हमने कहा‘क्या बात करते हो यार, छटांक भर फायदा तो होगा ही छटांक भर मिठाई खाकर।’
उसने अपना सिर हिलाते हुए कहा-‘नहीं! बिल्कुल नहीं। तुम्हारी जो हालत दिख रही है तुम भारी भरकम फायदा तो करा दोगे पर छटांक भर नहीं।’
अब हम उसकी तरफ देख रहे थे और लग रहा था कि हमारी बीमारी उसके पास जा रही है। पूरी तरह हमारी बीमारी चली नहीं जाये यह डर हमें लगने लगा। हम अपनी बची बीमारी के साथ वहां से चल दिये ।
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Friday, August 29, 2008

अपने मतलब होते गहरे-हिंदी शायरी

उनके हैं सुंदर चेहरे

पर दिल पर हैं काली नीयत के पहरे

मुस्कराती आंखों के पीछे हैं

कुटिल भाव ठहरे

तुम्हारी सुनते लगते हैं

पर कान हैं उनके बहरे

लच्छेदार बातों से मन बहलाते हैं

सपने दिखाते महलों में बसाने के

तरीके बताते हैं जिंदगी में

चालाकियों के दांव आजमाने के

संवारने का दावा करते हैं जिंदगी

आ जाते हैं बहुत करीब

जैसे पितृपुरुष हों

पर उनके अपने मतलब होते गहरे

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Thursday, August 28, 2008

सात समंदर पार-हिंदी शायरी

देह यहां है गांव में
आंखें देखना चाहती हैं सात समंदर पार
सोचता है मन
शायद वहां रौशनी अधिक होगी
वहां रोज रात को चांद की चमक होगी
मिलेगा यहां से ज्यादा सम्मान और प्यार

ख्यालों की नाव पर जब सवार
आदमी का मन हो जाता है
दोनों पांवों में अज्ञान का पहिया लग जाता है
उतर पड़ता है वह समंदर के अंधेरे में
कुछ पहुंचते हैं दूसरे किनारे तक
कुछ के नसीब में डूबना ही आता है
पहुंचते हैं जो उस पार
उनके मन को भी ऊबना आ जाता है
सोचते हैं
इंसान की बनाई कृत्रिम रौशनी तो
यहां बहुत है
जो ज्ञान चक्षुओं को कर देती है दृष्टिविहीन
पर सूरज और चांद की रौशनी
बराबर ही थी अपने यहां भी
जिसकी चाहत थी
वह न सम्मान मिला न प्यार
चैन और अमन भी कहां पाया
आकर सात समंदर पार
यादों में सताते अपने और यार

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Monday, August 25, 2008

छटांक भर की कविता से लोगों के दिल में छाये जाते-हास्य हिंदी शायरी

भरते हैं जेब अपनी माया से
फूल रहे हैं काया से
अपने जेब का बोझ नहीं उठा पाते
दूसरे की कविता को छ्रटांक भर का बताते

दोष उनका नहीं जमाने का है
जिन पर है माया का वरदहस्त
हो जाते हैं वह बोलने में मस्त
रचना किसे कहते हैं जानते नहीं
दूसरे के शब्दों को पढ़ते नहीं
कोई बताये तो अर्थ मानते नहीं
चंद किताबों से उठाये शब्द
यूं बाजार में ले जाते
साथ में पैसे भर घर ले आते
बड़े शहरों मे रहते
छोटे शहर के कवि को भी छोटा बताते ं
मगर सच भला किससे छिपता है
लिख लिख कर नाम और नामा कमाया
अपने ऊपर व्यवसायिक लेखक का तमगा लगाया
फिर भी नहीं बन पाये लोगों के नायक
पेशेवरों के ही रहे शब्द गायक
छटांक भर की कविता है तो क्या
लोगों के दिल में बैठ जाती है
देखने के छंटाक भर की लगे
भाव दिखाये गहरा
वही कविता कहलाती है
कहें महाकवि दीपक बापू
यूं तो तुम गाये जाओ
फब्तियां हम कसकर सभी से वाह वाह पाओ
हम छटांक भर की कविता से
लोगों के दिल में छाये जाते

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Sunday, August 24, 2008

समय से पहले चेत जाओ-हिंदी शायरी

शब्दों के शोर का आतंक मचाओ
दूसरे की गल्तियों को अपराध न बताओ
तुम्हारी आवाज को मिल गयी है
आजादी के साथ दौलत की ताकत
पर उस पर इतना न इतराओ

शिकायतों का पुलिंदा साथ लिये घूमते हो
पर अपनी गल्तियों को मजबूरी कहकर चूमते हो
नक्कारखाने से निकल आये हो
अपनी तूती में दूसरों के लिये
चुभने वाले तीर क्यों ढूंढते हो
अपनी कलम के तलवार हो जाने का जश्न न मनाओ

कब तब बहलाओगे
झूठ को सच बनाओगे
अपने दृष्टा होने के अहसास को
सृष्टा की तरह मत समझाओ
जमाने में कई लाचार है
जिनसे तुम्हारी तरह गल्तियां हो जाती हैं
पर छिपने के लिये वरदहस्त के अभाव में
सभी के सामने आ जाती हैं
उन पर तुम अपनी रोटी न पकाओ

जमाने में खून की होली खुले में खेलने वाले बहुत हैं
उनसे अपनी दृष्टि न छिपाओ
बढ़ सकते हैं उनके हाथ तुम्हारी तरफ भी
शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गरदन रेत में न छिपाओ
दूसरों की इज्जत से खेलने वाले खबरफरोशों
जब तक उसके पर्दे का सहारा है
लोग सह जाते हैं
अपना दर्द पी जाते हैं
तुम उन्हें मत डराओ
जमाना जब डरता है
तब ख्यालों से मरता है
कौम अगर शब्दों के शोर के आतंक तले
इस तरह मरती रही
तुम्हारी खबरें बेअसर हो जायेंगी
अनसुनी और अनदेखी कर दी जायेंगी
अपने आजादी के हथियार की धार को
बेजा इस्तेमाल कर उसे कुंद मत करो
नहीं तो फिर जुर्म पसंद दौलतमंदों के गुलाम हो जाओगे
समय से पहले चेत जाओ

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Friday, August 22, 2008

पालता है अन्न पत्थर नहीं-व्यंग्य क्षणिकायें

पद पुजता है आदमी नहीं
चमकती है प्रतिष्ठा देह नहीं
पालता है अन्न पत्थर नहीं
ओ! जमाने को उसूलों के बयां करने वालों
आकाश से कोई चीज जमीन पर
आकर टपकती नहीं
धरती पर उगती नहीं
उन चीजों की शौहरत को ही
असली सच बताकर
मत बहलाओ भोले लोगों को
जो बनती बिगड़ती हैं यहीं
...................................

दुनियां में जितने खिलौने हैं
जब तक खेलें उनके साथ ठीक
बिगड़्र जायें तो खुद को ही ढोने हैं
खुद से ही बहलायें दिल तो कितना अच्छा
काटें हम अपने अंदर ही बेहतर फसल
ऐसे ही बीज हमको बोने हैं

...................................
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Thursday, August 21, 2008

रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरता-व्यंग्य कविता

पापी पेट का है सवाल
इसलिये रोटी पर मचा रहता है
इस दुनियां में हमेशा बवाल
थाली में रोटी सजती हैं
तो फिर चाहिये मक्खनी दाल
नाक तक रोटी भर जाये
फिर उठता है अगले वक्त की रोटी का सवाल
पेट भरकर फिर खाली हो जाता है
रोटी का थाल फिर सजकर आता है
पर रोटी से इंसान का दिल कभी नहीं भरा
यही है एक कमाल
...........................
रोटी का इंसान से
बहुत गहरा है रिश्ता
जीवन भर रोटी की जुगाड़ में
घर से काम
और काम से घर की
दौड़ में हमेशा पिसता
हर सांस में बसी है उसके ख्वाहिशों
से जकड़ जाता है
जैसे चुंबक की तरफ
लोहा खिंचता

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Wednesday, August 20, 2008

चिंतन में अमरत्व की तलाश-हास्य कविता

चिंतन कुछ उन्होंने इस तरह किया
सारी चिंताओं ने उन्हें घेर लिया
उठाकर घूम रहे बोझा अपने सिर पर
न काम याद आता न घर
किया जब किसी ने उनसे सवाल तो बोले
‘बस, चिंतन करते हुए यह निष्कर्ष निकाला
किसी तरह होना है मुझे अमर’
................................................

एक ने कहा
‘चलो चिंतन सम्मेलन में चलें
अपने विचार इस तरह रखें कि
लोग हमारी बौद्धिकता पर जलें
मुझे तो कुछ आता नहीं
तुम ही कुछ बोल देना
याद रखना लोग कुछ न समझें
बस, हैरान परेशान हो जायें’

दूसरे ने कहा
‘अपनी चिंताओं का बोझ उठाये
भला मैं क्या बोल पाऊंगा
लोग समझें नहीं
हैरान और परेशान हो जायें
इस सोच से ही मैं घबड़ा जाता हूं
अपने को बेबस पाता हूं
ऐसे चिंतन से क्या फायदा जो
चिंताओं को बुलाकर अपने ही हाथ मलें
.............................................................................

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कवि एवं संपादक-दीपक भारतदीप

Tuesday, August 19, 2008

आदमी अपने दिल पर नकाब लगा लेता है-हिंदी शायरी

काम पर है तो घर की याद
और घर पर अपने काम की चिंता
आदमी हो गया है एकाकी
हर पल बस एक ही सोच
कोई काम न रह जाये बाकी

सब जानते हैं दुनियां उनके
दम पर नहीं चलतीं
पाल रहे हैं जो जिंदगियां
वह भी उनके सहारे नहीं पलती
जिनके मालिक कहलाते हैं
मुसीबत के साथ देंगे
कहां यह ख्याल कर पाते हैं
दुनियां चलती है
अपनी गति से
आदमी को यह खुशफहमी पालना
अच्छा लगता है कि
सब हो रहा है उसकी मति से
अंधी दौड़ मे दौड़ रहा है आदमी
कोई चीज मिलना न रह जाये बाकी

अपनी असलियत से बेखबर आदमी
अपने दिल पर ही नकाब लगा लेता है
किसी और को क्या देगा
अपने आप को दगा देता है
आसमान में उड़ता हुआ आदमी
जमीन की हकीकतों को
चाहता है भुलाना
भेजता है अपने तनाव को स्वयं बुलाना
शोर में करता शांति की तलाश
बीभत्स दृश्यों में कांति की आस
हर पल भाग रहा है आदमी
कहीं कुछ देखना न रह जाये बाकी
.............................................
दीपक भारतदीप

Saturday, August 16, 2008

तुम मोबाइल भाई बन जाओ-हास्य कविता

सास ने कहा बहू से
‘देखो, आज है राखी का दिन
सब बहनों को भाईयों से निभाना
तुम जल्दी भाई को जाकर राखी बांधकर
लौट आओ
फिर पूरा घर है तुम्हें संभालना
फिर मुझे अपने भाई के घर है जाना
वहीं होगा मेरा आज खाना
पीछे से तुम्हारी ननद आयेगी
उसके लिये जल्दी भोजन बनाना
वह लौट जायेगी
फिर उसकी ननद अपने मायके
भाई को राखी बांधने आयेगी
फिर वह भी लौट जायेगी
ज्यादा लंबा क्या खींचूं इस तरह
सभी की ननदें बहुऐं का कर्तव्य भी निभाऐंगी
बाकी तुम सब स्वयं ही समझ जाना’

बहू ने कहा
‘मैं तो अपने भाई को मोबाइल पर ही
कह देती हूं कि मैं तो ट्रांसमीटर की तरह
खड़ी हूं तुम मोबाइल भाई बन जाओ
यहीं राखी बंधवाने आ जाओ
मैं आई तो ससुराल के रक्षाबंधन का
दूर तक फैला लिंक टूट जायेगा
टूट पड़ेगा मुझ पर जमाना
वैसे भी मां ने कहा है
बेटी, आजकल बेदर्द हैं लोग
सभी को है दिखावे का रोग
मुश्किल है बहु का कर्तव्य निभाना
फिर भी सास की हर बात को
चुपचाप मानती जाना
आप तो बेफिक्र होकर मायके जाओ
चाहे जब आओ
मेरा भाई जानता है
राखी के कच्चे बंधनों को पक्का बनाना
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Friday, August 15, 2008

इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चलके-व्यंग्य

इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ’ चल के‘-यह उस गीत का मुखरा है तो हर वर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को अक्सर कहीं न कहीं सुनाई देता है। आज तो इसे कई बार सुना जा सकता है। कितनी अजीब बात है कि इस गीत के बोल कानों से सुनकर मजा तो सभी लेते रहे पर पूरे समाज ने कभी इसे हृदयंगम नहीं किया।

यह गाना किसी समय प्रासंगिक रहा होगा पर क्या आज हम वर्तमान में इसकी पंक्तियों में हम अपने भूतकाल की निराशा को भविष्य के कर्णधारों के कंधों पर आशा के रूप में स्थापित कर अपने दायित्व से मूंह मोड़ते नजर नहीं आते? जब यह गीत बना होगा तब लोगों ने इसमें पता नहीं कौनसा देशभक्ति का जज्बात देखा। क्या उस समय की पीढ़ी अपनी नयी पीढ़ी को यह संदेश देना चाहती थी कि हमने तो आजादी प्राप्त कर ली अब तो हम आराम करेंगे और जब तुम बड़े हो जाओ तब तुम्हीं यह देश अच्छी तरह संभालना। चलिये यह मान लिया कि पुराने लोग ठीक थे पर जब तक बच्चे बड़ें हो तब तक इस देश का क्या होना था? देश में चिंतन,मनन और अध्ययन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहना चाहिए थी पर लोगों ने शायद उसे भविष्य की पीढ़ी पर छोड़ दिया। इस मध्य क्या हुआ? जिन लोगों को अपने लाभ के लिये समाज पर वर्चस्व स्थापित करना था कर लिया। ऐसे गीतों से समाज केवल भविष्य की पीढ़ी पर ही सारा दारोमदार डाल कर स्वयं चलता रहा। बच्चे बड़े हो गये पर उन्होंने भी फिर अपनी आगे वाली पीढ़ी के लिये गाया‘इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चलके’। मतलब हमें नहीं चलना। हम तो लाचार हैं तुम ही चलना।

वाद और नारों पर चलाने के लिये इस देश में फिल्मों ने बहुत बड़ा योगदान दिया है। यही कारण है कि लोग आगे नहीं सोच पाते। दृढ़संकल्पित और जूझारू लोग नाइंसाफ करना और सहना दोनों ही अपराध मानते हैं। इंसाफ केवल दूसरों के साथ ही नहीं अपने साथ भी करना चाहिए। दूसरे के साथ इंसाफ करना और अपने लिये पाना दोनों ही वह डगर है जिस पर हर इंसान को चलना चाहिए। मगर यह क्या? आदमी न स्वयं दूसरे से इंसाफ करने के लिये तैयार है और न ही दूसरे से स्वयं पाने के लिये जूझने को तैयार है। उसे तो बस गाना है भविष्य की पीढ़ी के लिये‘इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के’।
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Thursday, August 14, 2008

बड़ा गुलाम तो छोटे गुलाम का साहब होता है-व्यंग्य

15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ था या एक राष्ट्र के रूप में स्थापना हुई थी। परंतत्र देश स्वतंत्र हुआ पर क्या परतंत्र का मतलब गुलामी होता है। कुछ प्रश्न है जिन पर विचार किया जाना चाहिये। विचार होगा इसकी संभावना बहुत कम लगती है क्योंकि वाद ओर नारों पर चलने वाले भारतीय बुद्धिजीवी समाज की चिंतन करने की अपनी सीमायें हैं और अधिकतर इतिहास में लिखे गये तथ्यों-जिनकी विश्वसनीयता वैसे ही संदिग्ध हेाती है- के आधार पर भविष्य की योजनायें बनाते है।

कई ऐसे नारे गढ़े गये हैं जिनको भुलाना आसान नहीं लगता। कोई कहता है कि चार हजार वर्ष तक भारत गुलाम रहा तो कोई दो हजार वर्ष बताकर मन का बोझ हल्का करता है। अगर मन लें वह गुलामी थी तो फिर क्या आज आजादी हैं? अगर यह आजादी है तो यह पहले भी थी। परंतत्रता और गुलामी में अंतर हैं। तंत्र से आशय कि आपके कार्य करने के साधनों से हैं। शासन, परिवार और संस्थाओं का आधार उनके कार्य करने का तंत्र होता है जिसमें मनुष्य और साधन संलिप्त रहकर काम करते हैं। परतंत्रता से आशय यह है कि इन कार्य करने वालों साधनों और लोगों का दूसरे के आदेश पर काम करना। सीधी बात करें तो देश का शासन करने का तंत्र ही आजाद हुआ था पर लोग अपनी मानसिकता को अभी भी गुलामी में रखे हुए हैे। अधिकतर लोगों का मौलिक चिंतन नहीं है और वह इतिहास की बातें कर बताते हैं कि वह ऐसा था और वहां यह था पर भविष्य की कोई योजना किसी के पास नहीं है।
जैसे जैसे प्रचार माध्यमों की शक्ति बढ़ रही है लोग सच से रू-ब-रू हो रहे हैं और वह इस आजादी को ही भ्रम बता रहे हैं। वह अपने विचार आक्रामक ढंग से व्यक्त करते हैं पर फिर गुलामों जैसे ही निष्कर्ष निकालते हैं। बहुत विचार करना और उससे आक्रामक ढंग से व्यक्त करने के बाद अंत में ‘हम क्या कर सकते हैं’ पर उनकी बात समाप्त हो जाती है।
शायद कुछ लोगों को यह लगे कि यह तो विषय से भटकाव है पर अपने समाज के बारे में विचार किये बिना किसी भी प्रकार की आजादी को मतलब समझना कठिन है। आज भी विश्व के पिछड़े समाजों में हमारा समाज माना जाता है। बीजिंग में चल रहे ओलंपिक में एक ही स्वर्ण पदक पर पूरा देश नाच उठा पर 110 करोड़ के इस देश में कम से कम 25 स्वर्ण पदक होता तो मानते कि हमारा तंत्र मजबूत है। जब भी इन खेलों में भारतीय दलों की नाकाम की बात होती है तो तंत्र को ही कोसा जाता है। यानि हमारा तंत्र कहीं से भी इतना प्रभावशाली नहीं है कि वह 25 स्वर्ण पदक जुटा सके। इक्का-दुक्का स्वर्ण पदक आने पर नाचना भी हैरानी की बात है। भारत ने व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार अब यह स्वर्ण पदक जीता जबकि पाकिस्तान का एक मुक्केबाज इस कारनामे को पहले ही अंजाम दे चुका है पर वहां भी एसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। हमारे देश एक स्वर्ण पदक पर इतना उछलना ही इस बात का प्रमाण है कि लोगों के दिल को यह तसल्ली हो गयी कि ‘चलो एक तो स्वर्ण पदक आ गया वरना तो बुरे हाल होते’।

तंत्र की नाकामी को सभी जानते हैं। इस पर बहसें भी होती हैं पर निष्कर्ष के रूप में कदम कोई नहीं उठाता। वर्तमान हालतों से सब अंसतुष्ट हैं पर बदलाव की बात कोई सोचता नहीं है। अग्रेज अपनी ऐसाी शैक्षणिक प्रणाली यहां छोड़ गये जिसमें गुलाम पैदा होते हैंं। यह अलग बात है कि बड़ा गुलाम छोटे गुलाम का साहब होता है।

समाज और लोगों की आदतों को ही देख लें वह किस कदर सुविधाओं के गुलाम हो गये है। देश में आयात अधिक है और निर्यात कम। विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता क्या गुलामी नहीं है। जिसे पैट्रोल पर पूरा देश दौड़ रहा है उसका अधिकांश भाग विदेश से आता है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करने का प्रयास उसका अंग था पर क्या वह आज कोई कर रहा है। पूरा देश गैस, पैट्रोल का गुलाम हो गया है। अगर इनका उत्पादन पूरी तरह देश में होता तो कोई बात नहीं पर अगर किसी कारण वश कोई देश भारत को तेल का निर्यात बंद कर दे या ेिकसी अन्य कारण से बाधित हो जाये तो फिर इस देश का क्या होगा? पूरा का पूरा समाज अपंग हो जायेगा। अपने शारीरिक तंत्र से लाचार होकर सब देखता रहेगा।

फिर जिन अंग्रेजों को खलनायक मानते थे आज उसकी प्रशंसा करते हैं। उसकी हर बात को बिना किसी प्रतिवाद के मान लेते हैं। हमारे देश के अनेक लोग वहां अपने लिये रोजगार पाने का सपना देखते हैं। वैसी भी अंग्रेजों का रवैया अभी साहबों से कम नहीं है। वैसे पहले तो अपने भाषणों में सभी वक्ता अंग्रेजों को कोसते थे पर अब यह काम किसी के बूते का नहीं है। अमेरिका के मातहत अंग्रेजों से कोई टकरा पाये इसका साहस किसी में नहीं है। फिर उनके द्वारा छोड़ी गयी साहब और गुलाम की व्यवस्था में हम कौनसा बदलाव ला पाये।

फिर अंग्रेजों ने कोई भारत को गुलाम नहीं बनाया था। उन्होंने यहां रियासतों के राजा और महाराजाओं को हटाकर अपना शासन कायम किया था। यही कारण है कि आज भी कई लोग उनको वर्तमान भारत के स्वरूप का निर्माता मानते हैं। अगर देखा जाये तो जिस आम आदमी के आजादी से सांस लेकर जीने का सपना देखा गया वह कभी पूरा नहीं हो सका क्योंकि तंत्र के संचालक बदले पर तंत्र नहीं। जब हम स्वतंत्रता की बात करते हैं तो अंग्रेजों की बात करनी पड़ती है पर अगर स्थापना दिवस की बात की जाये तो इस बात को भुलाया जा सकता है कि उनके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था। पिछले दिनों अखबारों में छपा था कि ब्रिटेन में भी सरकारी दफ्तर लालफीताशाही और कागजबाजी के शिकार हैं। वहां भी काम कम होता है। यानि हमारे यहां उनके द्वारा यहां स्थापित तंत्र ही काम रहा है जिसमें कागजों में लिखा पढ़कर फैसला किया जाता है या छोटे से छोटे काम पर चार लोग बैठकार लंबे समय तक विचार कर उसे करने का निर्णय करते हैं। वैसे तो लगता था कि अंग्रेजों ने केवल यहां ही साहब और गुलाम की व्यवस्था रखी पर दरअसल यह तो उनके यहां भी यही तंत्र काम कर रहा है। वहां भी कोई सभी साहब थोड़े ही हैं। वहां भी आम आदमी है और सभी लार्ड नहीं है। भारत से गये कुछ लोग भी वहां लार्ड की उपाधि से नवाजे गये हैं। मतलब यह कि भारतीय भी लार्ड हो सकते हैं यह अब पता चला है। ऐसे में ख्वामख्वाह में अंग्रेजों को महत्व देना। इससे तो अच्छा है कि इसे स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता तो अच्छा था।
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Saturday, August 9, 2008

अपने हाथ से पिए जहर की शिकायत नजर नहीं आती है-हिन्दी शायरी

सांप काटे से आदमी के मरने की
खबर ज़माने भर में
सनसनी फैला जाती है
उसके जहर को शौहरत दिला जाती है
पर पेट्रोल और गैस से निकला जहर
शराब और अफीम के नशे का कहर
पूरे समाज को डस रहा है धीरे धीरे
इसे लोगों की भीड़ जानते हुए भी
अपने से छिपा जाती है
दूसरों के मरने का दर्द होता है कम
पर शोक जताकर जमाने को बताया जाता है
संवेदनाएं का अहसास दिलाया जाता है
जहर है उसी का नाम जो पिए आदमी खुद
अपने हाथों से
पर जाहिर न करे बातों से
मर जाता है अपने ही

हाथ से फैलाए जहर से आदमी
पर उसके शिकायत कहीं नजर नहीं आती है
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Friday, August 8, 2008

आग के पास चैन की तलाश में जाते हैं-हिंदी शायरी

चलने को ताज महल भी चल जाता है
हिलने को कुतुबमीनार भी हिल जाता है
चांद लाकर यहां भेंट किया जाता है
तारा तोड़ कर जमीन पर सजाया जाता है
बेचने वाला सौदागर होना चाहिए
ख्वाब और भ्रम बेचना यहां आसान है
अपढ़ क्या पढ़ालिखा भी खरीददार बन जाता है

सच से परे ज्ञान पाकर
अक्ल से कौन काम कर पायेगा
जिनके पास ज्ञान है
वह कभी क्यों ख्वाब या भ्रम के बाजार जायेगा
सुख-सुविधा की दौड़ में
इनाम के रूप में चाहते लोग आराम
दिल में बैचेनी और ख्वाहिशों का बोझ ढोते हुए
गुजारते है सुबह और शाम
अंधेरे में जाते रौशनी की तलाश में
रहते है सौदागरों से वफा की आस में
बदन और मन को कर देती है जो राख
उसी आग के पास चैन की तलाश में जाते हैं
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Sunday, August 3, 2008

भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का-हिंदी नज्म

जिंदगी जीने का उनको बिल्कुल सलीका नहीं है
उनके पास वफा बेचने का कोई एक तरीका नहीं है
भीड़ में मचायें शोर अपनी जिंदगी के तजूर्बे का
पर उससे कभी कुछ खुद सीखा नही है
ख्वाहिश है कि जमाना उनको सलाम करे
आवाजें हैं उनकी बहुत तेज,पर शब्द तीखा नहीं है
बेअसर बोलते हैं पर जमाना फिर भी मानता है
उनको परखने का खांका किसी ने खींचा नहीं है
ईमानदार के ईमान को ही देते हैं चुनौती
खुद कभी उसका इस्तेमाल करना सीखा नही है
फिर भी नाम चमक रहा है इसलिये आकाश में
जमीन पर लोगों ने अपनी अक्ल से चलना सीख नहीं है
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Wednesday, July 30, 2008

दानव का अवतार अब नहीं होता-हिंदी शायरी

बम के धमाके से कांप गये शहर
इमारते कांपने लगी
वाहन उड़ गये हवा में
बिछ गयी लाशें सड़कों पर
पसर गया चारों और खून
दानव अट्टहास करते हुए बोला
‘’अब देवता धरती पर नहीं आते
मेरे अवतार होने के भय से वह भी घबड़ाते
पर मुझे भी वहां जाने की क्या जरूरत
इंसानों ने ही धर लिया है मेरा भेष
मुझसे काम अधिक तो वही कर आते
मैं तो देवताओं के चाहने वालों पर ही
करता था हमला
वह तो चाहे जिसे मारकर चले जाते
आम इंसानों के दिल में
बहुत समय तक दहशत फैलाकर
मेरे को ठंडक पहुंचाते
इंसान के मरने से अधिक
उसके तड़पने के अंदाज मुझे भाते
दानव का अब अवतार नहीं होता
धरती पर कुछ इंसान मेरे भेष में भी हैं
यह बात सब नहीं जान पाते’’
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Saturday, July 26, 2008

हमदर्दी बेचना अपना व्यापार मानते-हिंदी शायरी

जख्म जिनको होता है
दर्द ही होता है उनका अपना
हमदर्दी बस होती है दिखावा
बेघर होने का अहसास
जिनके घर उजड़ जाते वही जानते
बरसी है दौलत जिनके घर में
वह भला उजड़ने का दर्द क्या जानते
हमदर्दी में चंद शब्द कहने से
किसी का पेट नहीं भर जाता
उजड़ा घर बस नहीं जाता
जिन्होंने खोये हैं अपने हादसों में
दहशत के सौदागरों के हाथ
दिखाने के लिये कई लोग आगे बढ़ाते हाथ
जो हमदर्दी बेचना अपना व्यापार मानते
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जब तक बाजार में बिकेगी सनसनी-हिंदी शायरी

Friday, July 25, 2008

एक मंडी दहशत के नाम हो गयी-हिंदी शायरी

दहशत की भी सब जगह
चलती फिरती दुकान हो गयी
विज्ञापन का कोई झंझट नहीं
उनकी करतूतों की खबर सरेआम हो गयी

कहीं विचारधारा का बोर्ड लगा है
कहीं भाषा का नाम टंगा है
कहीं धर्म के नाम से रंगा है
जज्बातों का तो बस नाम है
सारी दुनियां मशहूरी उनके नाम हो गयी

बिना पैसे खिलौना नहीं आता
उनके हाथ में बम कैसे चला आता
फुलझड़ी में हाथ कांपता है गरीब बच्चे का
उनके हाथ बंदूक कैसे आती
गोलियां क्या सड़क पड़ उग आती
सवाल कोई नहीं पूछता
चर्चाएं सब जगह हो जाती
गंवाता है आम इंसान अपनी जान
कमाता कौन है, आता नहीं उसका नाम
दहशत कोई चीज नहीं जो बिके
पर फिर भी खरीदने वाले बहुत हैं
सपने भी भला जमीन पर होते कहां
पर वह भी तो हमेशा खूब बिके
हाथ में किसी के नहीं खरीददार उनके भी बहुत हैं
शायद मुश्किल हो गया है
सपनों में अब लोगों को बहलाना
इसलिये दहशत से चाहते हैं दहलाना
आदमी के दिल और दिमाग से खेलने के लिये
सौदागरों को कोई तो चाहिए बेचने के लिये खिलौना
इसलिये एक मंडी दहशत के नाम हो गयी
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